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सिविल सेवा परीक्षा संबंधी

भारतेन्दु हरिश्चंद

1.सब गुरूजन को बुरो बतावै
अपनी खिचड़ी अलग पकावै,
भीतर तत्व न झूठी तेजी
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी.
2.
तीन बुलाए तेरह आवै
निज निज बिपता रोई सुनावै,
आँखौ फूटे भरा न पेट
क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रैजुएट.
3.
सुंदर बानी कहि समुझावै
बिधवागन सों नेह बढ़ावै,
दयानिधान परम गुन-सागर
सखि सज्जन नहिं विद्यासागर.
4.
सीटी देकर पास बुलावै
रूपया ले तो निकट बिठावै,
ले भागै मोहि खेलहि खेल
क्यों सखि सज्ज्न नहिं सखि रेल.
5.
धन लेकर कुछ काम न आव
ऊँची नीची राह दिखाव,
समय पड़ै पर सीधै गुंगी
क्यों सखि सज्ज्न नहिं सखि चुंगी.
6.
रूप दिखावत सरबस लूटै
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै,
कपट कटारी जिय मैं हुलिस
क्यों सखि सज्ज्न नहिं सखि पुलिस.
7.
भीतर भीतर सब रस चूसै
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै,
जाहिर बातन मैं अति तेज
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेज.
8.
एक गरभ मैं सौ सौ पूत
जनमावै ऐसा मजबूत,
करै खटाखट काम सयाना
सखि सज्जन नहिं छापाखाना.
9.
नई नई नित तान सुनावै
अपने जाल में जगत फँसावै,
नित नित हमैं करै बल-सून
क्यों सखि सज्जन नहिं कानून.
10.
इनकी उनकी खिदमत करो
रूपया देते देते मरो,
तब आवै मोहिं करन खराब
क्यों सखि सज्जन नहिं खिताब.
11.
मूँह जब लागै तब नहिं छूटै
जाति मान धन सब कुछ लूटै,
पागल करि मोहिं करै खराब
क्यों सखि सज्जन नहिं सराब.

तमस Online

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Sunday, June 29, 2008

हम औरतें


रक्त से भरा तसला है
रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों में
हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्यार किए जाने की अभिलाषा
सब्जी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई
प्रेतात्माएँ
हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं
दरवाज़ा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं
हम हैं इच्छा-मृग
वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो
चौकड़ियाँ
मार लेने दो हमें कमबख्तो !

-----------------------वीरेन डंगवाल कृत साभार
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Saturday, June 28, 2008

साहित्येतिहास में स्त्री


...इससे पहले कि हम खुद ब्रह्मराक्षस बन जायें
हमें इतिहास की अपनी परिभाषा को
ब्रह्मराक्षसों की कैद से आज़ाद कराना होगा.
हमें उन तटों पर पहुँचना होगा
जहाँ यह अजस्र धारा बह रही है.
चलो इसमें एक बूँद बनकर बहें
ताकि हमारा रास्ता
कल इतिहास के सफ़ों पर
सुन्दर सुरीले छंद बन अंकित हो.

...इससे पहले कि
इस सदी की किताब बंद हो
ऐसा कुछ करें कि
हमारे हिस्से के सफ़े
कोरे ही न छूट जायें.

_____________________कात्यायनी, दुर्ग द्वार पर दस्तक से साभार
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Wednesday, June 25, 2008

आखिरी मंजिल ( कहानी )


आह? आज तीन साल गुजर गए, यही मकान है, यही बाग है, यही गंगा का किनारा, यही संगमरमर का हौज। यही मैं हूँ और यही दरोदीवार. मगर इन चीजों से दिल पर कोई असर नहीं होता. वह नशा जो गंगा की सुहानी और हवा के दिलकश झौंकों से दिल पर छा जाता था. उस नशे के लिए अब जी तरस-जरस के रह जाता है. अब वह दिल नही रहा. वह युवती जो जिंदगी का सहारा थी अब इस दुनिया में नहीं है.
मोहिनी ने बड़ा आकर्षक रूप पाया था. उसके सौंदर्य में एक आश्चर्यजनक बात थी. उसे प्यार करना मुश्किल था, वह पूजने के योग्य थी. उसके चेहरे पर हमेशा एक बड़ी लुभावनी आत्मिकता की दीप्ति रहती थी. उसकी आंखे जिनमें लाज और गंभीरता और पवित्रता का नशा था, प्रेम का स्रोत थी. उसकी एक-एक चितवन, एक-एक क्रिया, एक-एक बात उसके ह्रदय की पवित्रता और सच्चाई का असर दिल पर पैदा करती थी. जब वह अपनी शर्मीली आंखों से मेरी ओर ताकती तो उसका आकर्षण और असकी गर्मी मेरे दिल में एक ज्वारभाटा सा पैदा कर देती थी. उसकी आंखों से आत्मिक भावों की किरनें निकलती थीं. मगर उसके होठों प्रेम की बानी से अपरिचित थे. उसने कभी इशारे से भी उस अथाह प्रेम को व्यक्त नहीं किया जिसकी लहरों में वह खुद तिनके की तरह बही जाती थी. उसके प्रेम की कोई सीमा न थी. वह प्रेम जिसका लक्ष्य मिलन है, प्रेम नहीं वासना है. मोहिनी का प्रेम वह प्रेम था जो मिलने में भी वियोग के मजे लेता है. मुझे खूब याद है एक बार जब उसी हौज के किनारे चॉँदनी रात में मेरी प्रेम – भरी बातों से विभोर होकर उसने कहा था-आह वह आवाज अभी मेरे ह्रदय पर अंकित है, ‘मिलन प्रेम का आदि है अंत नहीं.’ प्रेम की समस्या पर इससे ज्यादा शनदार, इससे ज्यादा ऊंचा ख्याल कभी मेरी नजर में नहीं गुजरा. वह प्रेम जो चितावनो से पैदा होता है और वियोग में भी हरा-भरा रहता है, वह वासना के एक झोंके को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता. संभव है कि यह मेरी आत्मस्तुति हो मगर वह प्रेम, जो मेरी कमजोरियों के बावजूद मोहिनी को मुझसे था उसका एक कतरा भी मुझे बेसुध करने के लिए काफी था. मेरा हृदय इतना विशाल ही न था, मुझे आश्चर्य होता था कि मुझमें वह कौन-सा गुण था जिसने मोहिनी को मेरे प्रति प्रेम से विह्वल कर दिया था. सौन्दर्य, आचरण की पवित्रता, मर्दानगी का जौहर यही वह गुण हैं जिन पर मुहब्बत निछावर होती है. मगर मैं इनमें से एक पर भी गर्व नहीं कर सकता था. शायद मेरी कमजोरियॉँ ही उस प्रेम की तड़प का कारण थीं.
मोहिनी में वह अदायें न थीं जिन पर रंगीली तबीयतें फिदा हो जाया करती हैं. तिरछी चितवन, रूप-गर्व की मस्ती भरी हुई आंखें, दिल को मोह लेने वाली मुस्कराहट, चंचल वाणी, उनमें से कोई चीज यहॉँ न थी! मगर जिस तरह चॉँद की मद्धिम सुहानी रोशनी में कभी-कभी फुहारें पड़ने लगती हैं, उसी तरह निश्छल प्रेम में उसके चेहरे पर एक मुस्कराहट कौंध जाती और आंखें नम हो जातीं. यह अदा न थी, सच्चे भावों की तस्वीर थी जो मेरे हृदय में पवित्र प्रेम की खलबली पैदा कर देती थी.



शाम का वक्त था, दिन और रात गले मिल रहे थे. आसमान पर मतवाली घटायें छाई हुई थीं और मैं मोहिनी के साथ उसी हौज के किनारे बैठा हुआ था. ठण्डी-ठण्डी बयार और मस्त घटायें हृदय के किसी कोने में सोते हुए प्रेम के भाव को जगा दिया करती हैं. वह मतवालापन जो उस वक्त हमारे दिलों पर छाया हुआ था उस पर मैं हजारों होशमंदियों को कुर्बान कर सकता हूँ. ऐसा मालूम होता था कि उस मस्ती के आलम में हमारे दिल बेताब होकर आंखों से टपक पड़ेंगे. आज मोहिनी की जबान भी संयम की बेड़ियों से मुक्त हो गई थी और उसकी प्रेम में डूबी हुई बातों से मेरी आत्मा को जीवन मिल रहा था.
एकाएक मोहिनी ने चौंककर गंगा की तरफ देखा. हमारे दिलों की तरह उस वक्त गंगा भी उमड़ी हुई थी.
पानी की उस उद्विग्न उठती-गिरती सतह पर एक दिया बहता हुआ चला जाता था और और उसका चमकता हुआ अक्स थिरकता और नाचता एक पुच्छल तारे की तरह पानी को आलोकित कर रहा था. आह! उस नन्ही-सी जान की क्या बिसात थी! कागज के चंद पुर्जे, बांस की चंद तीलियां, मिट्टी का एक दिया कि जैसे किसी की अतृप्त लालसाओं की समाधि थी जिस पर किसी दुख बँटानेवाले ने तरस खाकर एक दिया जला दिया था. मगर वह नन्हीं-सी जान जिसके अस्तित्व का कोई ठिकाना न था, उस अथाह सागर में उछलती हुई लहरों से टकराती, भँवरों से हिलकोरें खाती, शोर करती हुई लहरों को रौंदती चली जाती थी. शायद जल देवियों ने उसकी निर्बलता पर तरस खाकर उसे अपने आंचलों में छुपा लिया था.
जब तक वह दिया झिलमिलाता और टिमटिमाता, हमदर्द लहरों से झकोरे लेता दिखाई दिया. मोहिनी टकटकी लगाये खोयी-सी उसकी तरफ ताकती रही. जब वह आंख से ओझल हो गया तो वह बेचैनी से उठ खड़ी हुई और बोली- मैं किनारे पर जाकर उस दिये को देखूँगी.
जिस तरह हलवाई की मनभावन पुकार सुनकर बच्चा घर से बाहर निकल पड़ता है और चाव-भरी आंखों से देखता और अधीर आवाजों से पुकारता उस नेमत के थाल की तरफ दौड़ता है, उसी जोश और चाव के साथ मोहिनी नदी के किनारे चली.
बाग से नदी तक सीढ़ियॉँ बनी हुई थीं. हम दोनों तेजी के साथ नीचे उतरे और किनारे पहुँचते ही मोहिनी ने खुशी के मारे उछलकर जोर से कहा-अभी है! अभी है! देखो वह निकल गया!
वह बच्चों का-सा उत्साह और उद्विग्न अधीरता जो मोहिनी के चेहरे पर उस समय थी, मुझे कभी न भूलेगी. मेरे दिल में सवाल पैदा हुआ, उस दिये से ऐसा हार्दिक संबंध, ऐसी विह्वलता क्यों? मुझ जैसा कवित्वशून्य व्यक्ति उस पहेली को जरा भी न बूझ सका.
मेरे हृदय में आशंकाएं पैदा हुई. अंधेरी रात है, घटायें उमड़ी हुई, नदी बाढ़ पर, हवा तेज, यहॉँ इस वक्त ठहरना ठीक नहीं. मगर मोहिनी! वह चाव-भरे भोलेपन की तस्वीर, उसी दिये की तरफ आँखें लगाये चुपचाप खड़ी थी और वह उदास दिया ज्यों हिलता मचलता चला जाता था, न जाने कहॉँ किस देश!
मगर थोड़ी देर के बाद वह दिया आँखों से ओझल हो गया. मोहिनी ने निराश स्वर में पूछा-गया! बुझ गया होगा? और इसके पहले कि मैं जवाब दूँ वह उस डोंगी के पास चली गई, जिस पर बैठकर हम कभी-कभी नदी की सैरें किया करते थे, और प्यार से मेरे गले लिपटकर बोली-मैं उस दिये को देखने जाऊँगी कि वह कहॉँ जा रहा है, किस देश को.
यह कहते-कहते मोहिनी ने नाव की रस्सी खोल ली. जिस तरह पेड़ों की डालियॉँ तूफान के झोंकों से झंकोले खाती हैं उसी तरह यह डोंगी डॉँवाडोल हो रही थी. नदी का वह डरावना विस्तार, लहरों की वह भयानक छलॉँगें, पानी की वह गरजती हुई आवाज, इस खौफनाक अंधेरे में इस डोंगी का बेड़ा क्योंकर पार होगा! मेरा दिल बैठ गया. क्या उस अभागे की तलाश में यह किश्ती भी डूबेगी! मगर मोहिनी का दिल उस वक्त उसके बस में न था. उसी दिये की तरह उसका हृदय भी भावनाओं की विराट, लहरों भरी, गरजती हुई नदी में बहा जा रहा था. मतवाली घटायें झुकती चली आती थीं कि जैसे नदी के गले मिलेंगी और वह काली नदी यों उठती थी कि जैसे बदलों को छू लेंगी। डर के मारे आँखें मुंदी जाती थीं. हम तेजी के साथ उछलते, कगारों के गिरने की आवाजें सुनते, काले-काले पेड़ों का झूमना देखते चले जाते थे. आबादी पीछे छूट गई, देवताओं को बस्ती से भी आगे निकल गये. एकाएक मोहिनी चौंककर उठ खड़ी हुई और बोली- अभी है! अभी है! देखों वह जा रहा है.
मैंने आंख उठाकर देखा, वह दिया ज्यों का त्यों हिलता-मचलता चला जाता था.



उस दिये को देखते हम बहुत दूर निकल गए. मोहिनी ने यह राग अलापना शुरू किया:
मैं साजन से मिलन चली...
कैसा तड़पा देने वाला गीत था और कैसी दर्दभरी रसीली आवाज। प्रेम और आंसुओं में डूबी हुई. मोहक गीत में कल्पनाओं को जगाने की बड़ी शक्ति होती है. वह मनुष्य को भौतिक संसार से उठाकर कल्पनालोक में पहुँचा देता है. मेरे मन की आंखों में उस वक्त नदी की पुरशोर लहरें, नदी किनारे की झूमती हुई डालियॉँ, सनसनाती हुई हवा सबने जैसे रूप धर लिया था और सब की सब तेजी से कदम उठाये चली जाती थीं, अपने साजन से मिलने के लिए. उत्कंठा और प्रेम से झूमती हुई ऐ युवती की धुंधली सपने-जैसी तस्वीर हवा में, लहरों में और पेड़ों के झुरमुट में चली जाती दिखाई देती और कहती थी- साजन से मिलने के लिए! इस गीत ने सारे दृश्य पर उत्कंठा का जादू फूंक दिया.
मैं साजन से मिलन चली
साजन बसत कौन सी नगरी मैं बौरी ना जानूँ
ना मोहे आस मिलन की उससे ऐसी प्रीत भली
मैं साजन से मिलन चली...
मोहिनी खामोश हुई तो चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था और उस सन्नाटे में एक बहुत मद्धिम, रसीला स्वप्निल-स्वर क्षितिज के उस पार से या नदी के नीचे से या हवा के झोंकों के साथ आता हुआ मन के कानों को सुनाई देता था.
मैं साजन से मिलन चली
मैं इस गीत से इतना प्रभावित हुआ कि जरा देर के लिए मुझे खयाल न रहा कि कहॉँ हूँ और कहॉँ जा रहा हूँ. दिल और दिमाग में वही राग गूँज रहा था. अचानक मोहिनी ने कहा-उस दिये को देखो. मैंने दिये की तरफ देखा. उसकी रोशनी मंद हो गई थी और आयु की पूंजी खत्म हो चली थी. आखिर वह एक बार जरा भभका और बुझ गया. जिस तरह पानी की बूँद नदी में गिरकर गायब हो जाती है, उसी तरह अंधेरे के फैलाव में उस दिये की हस्ती गायब हो गई! मोहिनी ने धीमे से कहा, अब नहीं दिखाई देता! बुझ गया! यह कहकर उसने एक ठण्डी सांस ली. दर्द उमड़ आया. आँसुओं से गला फंस गया, जबान से सिर्फ इतना निकला, क्या यही उसकी आखिरी मंजिल थी? और आँखों से आँसू गिरने लगे.
मेरी आँखों के सामने से पर्दा-सा हट गया. मोहिनी की बेचैनी और उत्कंठा, अधीरता और उदासी का रहस्य समझ में आ गया और बरबस मेरी आंखों से भी आँसू की चंद बूंदें टपक पड़ीं. क्या उस शोर-भरे, खतरनाक, तूफानी सफर की यही आखिरी मंजिल थी?
दूसरे दिन मोहिनी उठी तो उसका चेहरा पीला था. उसे रात भर नींद नहीं आई थी. वह कवि स्वभाव की स्त्री थी. रात की इस घटना ने उसके दर्द-भरे भावुक हृदय पर बहुत असर पैदा किया था. हँसी उसके होंठों पर यूँ ही बहुत कम आती थी, हॉँ चेहरा खिला रहता थां आज से वह हँसमुखपन भी बिदा हो गया, हरदम चेहरे पर एक उदासी-सी छायी रहती और बातें ऐसी जिनसे हृदय छलनी होता था और रोना आता था. मैं उसके दिल को इन ख्यालों से दूर रखने के लिए कई बार हँसाने वाले किस्से लाया मगर उसने उन्हें खोलकर भी न देखा। हॉँ, जब मैं घर पर न होता तो वह कवि की रचनाएं देखा करती मगर इसलिए नहीं कि उनके पढ़ने से कोई आनन्द मिलता था बल्कि इसलिए कि उसे रोने के लिए खयाल मिल जाता था और वह कविताएँ जो उस जमाने में उसने लिखीं दिल को पिघला देने वाले दर्द-भरे गीत हैं. कौन ऐसा व्यक्ति है जो उन्हें पढ़कर अपने आँसू रोक लेगा. वह कभी-कभी अपनी कविताएँ मुझे सुनाती और जब मैं दर्द में डूबकर उनकी प्रशंसा करता तो मुझे उसकी ऑंखों में आत्मा के उल्लास का नशा दिखाई पड़ता. हँसी-दिल्लगी और रंगीनी मुमकिन है कुछ लोगों के दिलों पर असर पैदा कर सके मगर वह कौन-सा दिल है जो दर्द के भावों से पिघल न जाएगा.
एक रोज हम दोनों इसी बाग की सैर कर रहे थे. शाम का वक्त था और चैत का महीना. मोहिनी की तबियत आज खुश थी. बहुत दिनों के बाद आज उसके होंठों पर मुस्कराहट की झलक दिखाई दी थी. जब शाम हो गई और पूरनमासी का चॉँद गंगा की गोद से निकलकर ऊपर उठा तो हम इसी हौज के किनारे बैठ गए. यह मौलसिरियों की कतार ओर यह हौज मोहिनी की यादगार हैं. चॉँदनी में बिसात आयी और चौपड़ होने लगी. आज तबियत की ताजगी ने उसके रूप को चमका दिया था और उसकी मोहक चपलतायें मुझे मतवाला किये देती थीं. मैं कई बाजियॉँ खेला और हर बार हारा. हारने में जो मजा था वह जीतने में कहॉँ. हल्की-सी मस्ती में जो मजा है वह छकने और मतवाला होने में नहीं.
चॉँदनी खूब छिटकी हुई थी. एकाएक मोहिनी ने गंगा की तरफ देखा और मुझसे बोली, वह उस पार कैसी रोशनी नजर आ रही है? मैंने भी निगाह दौड़ाई, चिता की आग जल रही थी लेकिन मैंने टालकर कहा- सॉँझी खाना पका रहे हैं.
मोहिनी को विश्वास नहीं हुआ. उसके चेहरे पर एक उदास मुस्कराहट दिखाई दी और आँखें नम हो गईं. ऐसे दुख देने वाले दृश्य उसके भावुक और दर्दमंद दिल पर वही असर करते थे जो लू की लपट फूलों के साथ करती है.
थोड़ी देर तक वह मौन, निश्चला बैठी रही फिर शोकभरे स्वर में बोली-‘अपनी आखिरी मंजिल पर पहुँच गया!’

______________________________________________प्रेमचंद
-जमाना, अगस्त-सितम्बर १९११
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Wednesday, June 18, 2008

आदमी की पूँछ (व्यंग्य)
















आज के बंदर भले न मानें, मगर आज का आदमी जरूर मानता है कि आदमी बंदर की औलाद है. चिंपाजी की प्रागैतिहासिक नानी हमारी भी नानी थी. पहले हम भी चिंपाजी की तरह पेड़ पर रहते थे और जमीन पर आने से घबराते थे. यह अलग बात है कि चिंपाजी जो था, वही बना रहा. हम जो थे, वह नहीं रहे. और तो और हम ने अपनी ऐतिहासिक पूँछ तक त्याग दी.

मान लो, आज जो हम हैं, वह रहते, लेकिन साथ ही हमारी पूँछ भी रहती. यानी हम पूँछवान मनुष्य होते, तो क्या होता!
एक संभावना यह थी कि हम पूँछ को शरीर का एक फालतू अंग मानकर कटवा डालते. लेकिन क्या हम सचमुच ऐसा करते? क्या अपने शरीर के किसी अंग को कटवा डालना आसान होता है. नहीं होता, तो इसका मतलब यह है कि हनुमानजी की तरह हमारी भी पूँछ होती. यह फालतू सी चीज हमेशा पीछे लटकी रहती, तो क्या हम अपने को अपनी ही नजर में हास्यास्पद लगते? क्या जिंदगी भर, पीढ़ी-दर- पीढ़ी हम इस हास्यास्पदता को ढो पाते?
दूसरी संभावना यह है कि अगर गाय, भैंस, कुत्ता, गधा और खुद बंदर अपनी पूँछ के कारण हमें हास्यास्पद नहीं लगता है तो हम अपनी ही नजर में खुद को हास्यास्पद क्यों लगते?

तो एक समस्या तो हल हो गई कि न हम अपनी पूँछ कटवाते, न खुद को हास्यास्पद लगते. मगर अब सवाल सामने यह आता है कि हम अपनी पूँछ का क्या करते? सिर से पैर तक हमारे शरीर का हर अंग काम का है. पूँछ भी शायद किसी न किसी तरह जरूरी होती. गुस्से में हम उसे जमीन पर फटकारते. शायद मक्खी-मच्छर से अपने को बचाने के लिए गाय भैंस की तरह हम भी अपनी पूँछ का इस्तेमाल करते. मालिक को खुश करने के लिए उसके सामने कुत्ते की तरह हम भी दुम हिलाते. शायद पाँच दस किलो का वजन उठाने के लिए हम पूँछ का इस्तेमाल करते.
अगर कोई बिन पूँछ का हमें दिखता, तो हम उसे विकलांग मानते. बच्चों के हाथ-पैर तोड़कर उन्हें विकलांग बनाकर भीख मँगवाने वाले, तब शायद बच्चों की पूँछ भी काट डालते.

लेकिन पूँछ का बड़ा होना श्रेष्ठता का प्रतीक माना जाता या छोटा होना? छोटी पूँछ इसलिए श्रेष्ठ मानी जा सकती थी वह जमीन पर नहीं घिसटती. लेकिन छोटा कद, छोटी नाक, छोटी आँख, छोटे हाथ वगैरह को सौंदर्य का प्रतीक तो नहीं माना जाता. इसलिए संभव था कि लंबी पूँछ मनुष्य के सौंदर्य उपमानों में से एक मानी जाती। और सब तो ठीक है लेकिन लड़की की पूँछ छोटी है’, और सब तो ठीक है लेकिन लड़के की पूँछ टेढ़ी है’ जैसी टिप्पणियाँ होतीं.

एक सवाल यह भी है कि आदमी अपनी पूँछ उठाकर चलता या गिराकर चलता या सीधी रखकर चलता? पूँछ उठाकर चलता, तो वह शर्ट पैंट या साड़ी ब्लाउज के बाहर होती या अंदर? और अगर पूँछ शर्ट-पैंट या साड़ी- ब्लाउज के बाहर होती, तो क्या उसे ठंड, गरमी, बरसात से बचाने के लिए कपड़े से ढँका जाता?
तब पूँछ ढँकने की भी डेस होती और उसके ड्रेस डिजाइनर होते. फैशन हमेशा बदलते रहते. गरमी में पुरुष अपनी पूँछ आधी या पूरी खुली रखते, मगर औरतों को अपनी पूँछ ढँकनी पड़ती. केवल शहरी आधुनिकाएँ ही अपनी पूँछ को अधनंगा रखतीं और बुढ़ऊ कहते कि देखा-देखा, आजकल की लड़कियाँ कितनी बेशरम हैं, अपनी पूँछ दिखाती रहती हैं. लड़के टेढ़ी या सीधी नजरों से लड़कियों की पूँछ को देखते और कहते, यार क्या बला की पूँछ है. हाय! हम तो मर गए.’’

पूँछ के बालों के बारे में तो हमने सोचा ही नहीं. पूँछ के बाल धोए जाते और उनमें कंघी की जाती. तब ब्यूटी पार्लवाले पूँछ के बालों को ‘सुन्दर’ बनाने के भी उपाय करते. उधर नाइयों को भी काम मिलता. हो सकता है कुछ पुरुष दाढ़ी-मूँछ की तरह पूँछ के बाल भी शेव कराते. कुछ इन बालों को बड़ा रखते. लड़कियाँ हो सकता है, इन बालों में रिबन बाँधतीं, रबड़ लगातीं या क्लिप लगातीं. पूँछ के बालों को नरम, मुलायम और स्वस्थ रखने के लिए हो सकता है कुछ साबुन शैंपू और क्रीमें होतीं.

बहुत कुछ होता, गर पूँछ होती. तब आँख, दाँत कान विशेषज्ञ की तरह शायद पूँछ विशेषज्ञ भी होते. लोग पूँछ में दर्द की शिकायत लेकर डॉक्टर के पास जाते. डॉक्टर पूछता कि पूँछ को ऊँचा रखने से दर्द होता है या नीचा रखने से. पूँछ को फटकारने से दर्द होता है या हिलाने से. वह दवा के साथ-साथ पूँछ के तरह- तरह के व्यायाम भी बताता. मालिश के लिए तेल या लोशन बताता. पूँछ के बारे में कुछ नए मुहावरे भी बनते. हो सकता है, तब लोग पूँछ का सवाल बनाने की बजाए पूँछ का सवाल बनाते. व्यवस्था को लूँली-लँगड़ी के साथ ही लोग पूँछ कटी भी बताते. किसी को गरियाने के लिए लोग तब कहते कि साले को पूँछ हिलाना तो आता नहीं है, नेतागिरी करने चला है.

और भी अनंत संभावनाएँ हैं. हिंदुओं में शादी के समय वर-वधू की गाँठ बाँधने की बजाए पूँछ बाँछने की परंपरा होती. हो सकता है, आदमी को पूँछ होती तो उसे कुर्सी की जरूरत न पड़ती. जमीन पर दो पैर रखे, पूँछ गोल-गोल मोड़कर रखी और बैठ गए.
हो सकता है, हम भारतीय अपनी पूँछों के बल पर गर्व करते और सबसे बड़ी बात, सिर्फ हनुमान की ही नहीं राम-लक्ष्मण-सीता, कृष्ण-राधा वगैरह की जितनी तसवीरें और मूर्तियाँ मिलतीं, सब में उनकी पूँछ होती.
_____________________विष्णु नागर, राष्ट्रीय नाक से साभार
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Sunday, June 15, 2008

संस्कृति (लघुकथा)









भूखा आदमी सड़क किनारे कराह रहा था. एक दयालु आदमी रोटी लेकर उसके पास पहँचा और उसे दे ही रहा था कि एक-दूसरे आदमी ने उसका हाथ खींच लिया. वह आदमी बड़ा रंगीन था.
पहले आदमी ने पूछा, "क्यों भाई, भूखे को भोजन क्यों नहीं देने देते?"
रंगीन आदमी बोला, "ठहरो, तुम इस प्रकार उसका हित नहीं कर सकते. तुम केवल उसके तन की भूख समझ पाते हो, मैं उसकी आत्मा की भूख जानता हूँ. देखते नहीं हो, मनुष्य-शरीर में पेट नीचे है और हृदय के ऊपर. हृदय की अधिक महत्ता है."
पहला आदमी बोला, "लेकिन उसका हृदय पेट पर ही टिका हुआ है. अगर पेट में भोजन नहीं गया तो हृदय की टिक-टिक बंद नहीं हो जायेगी!"
रंगीन आदमी हँसा, फिर बोला, "देखो, मैं बतलाता हूँ कि उसकी भूख कैसे बुझेगी!"
यह कहकर वह उस भूखे के सामने बाँसुरी बजाने लगा. दूसरे ने पूछा, "यह तुम क्या कर रहे हो, इससे क्या होगा?"
रंगीन आदमी बोला, "मैं उसे संस्कृति का राग सुना रहा हूँ. तुम्हारी रोटी से तो एक दिन के लिए ही उसकी भूख भागेगी, संस्कृति के राम से उसकी जनम-जनम की भूख भागेगी."
वह फिर बाँसूरी बजाने लगा.
और तब वह भूखा उठा और बाँसूरी झपटकर पास की नाली में फेंक दी.
____________________________
हरिशंकर परसाई कृत साभार
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रजनी-दिन नित्य चला ही किया


गुरुवर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अनेक विधाओं में रचना की है. उनका कवि रूप अपेक्षाकृत अल्पज्ञात है. उनकी कोई कविता किसी पत्रिका में प्रकाशित मैंने नहीं देखी है. ‘कवि’ (संपादक:विष्णुचंद्र शर्मा) में उन्होंने भवानीप्रसाद मिश्र की कविताओं पर अपने विचार कविता के रूप में प्रकट किये थे. वह कविता में लिखी हुई आलोचना है. हलके मूड में कभी-कभी वे अपनी कविताएँ सुनाते थे. उनके शिष्यों ने भी उनकी कविताओं को गंभीरता से नहीं लिया. डॉ. नामवर सिंह ने ‘आलोचना’ का संपादन शुरू किया तो द्विवेदी जी उनसे मज़ाक में कहते-‘‘मैंने भी कविताएँ लिखी हैं. मुझसे क्यों नहीं माँगते?’’ एक बार डॉ. नित्यानंद तिवारी और हम साथ-साथ बैठे थे. पंडित जी ने नामवर जी से कहा-‘‘मेरी कविताएँ ‘आलोचना’ में क्यों नहीं छापते?’’ मैंने कहा-‘‘नामवर जी, इतनी खराब कविताएं आप छापते हैं, पंडित जी की कविताएँ भी छाप दीजिए.’’ आचार्यश्री ने अट्टाहस किया. वत्सल एवं कृत्रिम क्रोध में कहा-‘‘मेरी कविताएँ अच्छी हैं, उनकी बुराई मत करो.’’ बाद में नित्यानंद जी ने आश्चर्यपूर्वक पूछा-‘‘आप द्विवेदी जी से ऐसी बात कर लेते हैं!’’
लेकिन एक बार भोपाल में ‘इप्टा’ के एक युवक गायक से पंडित जी की एक कविता सुनकर मैं चकित रह गया. कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं-
रजनी-दिन नित्य चला ही किया मैं अनंत की गोद में खेला हुआ
चिरकाल न वास कहीं भी किया किसी आँधी से नित्य धकेला हुआ
न थका न रुका न हटा न झुका किसी फक्कड़ बाबा का चेला हुआ
मद चूता रहा तन मस्त बना अलबेला मैं ऐसा अकेला हुआ। ‘इप्टा’ (भारतीय जन नाट्य मंच) के किशोर गायक ने इस गीत को ऐसी लय में बाँधा कि इस कविता में मुझे नया अर्थ मिला. मुझे याद पड़ता है कि गायक गुहा नियोगी थे जो किसी कॉलेज में अंग्रेज़ी के अध्यापक, कवि और प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यकर्त्ता हैं. छंद सवैया है किन्तु मध्यकालीन स्वर सन्निधि से उत्पन्न शब्द-मैत्री बिलकुल टूटी है. लगता है, रीति को भावनाओं की धकापेल ने तोड़-फोड़ दिया है. सवैया में ‘फक्कड़ बाबा का चेला हुआ’ और किसी आँधी से नित्य धकेला हुआ बिलकुल नया स्वर है. यह विनोद का नहीं, अनुभव की तीव्रता का अदमित स्वर है जो सिर्फ पुरानी सवैया रीति को तोड़ ही नहीं रहा है, एक नई लय का प्रवर्तन कर रहा है. यह खड़खड़ाहट वीररसात्मक सवैयों की कड़कड़ाहट या गर्जना नहीं है, वैयक्तिकता का नया स्वर है. नरेन्द्र शर्मा, बच्चन, अंचल से भिन्न.
किन्तु कवि हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस रौ में कविताएँ नहीं लिखीं. लिखीं भी तो यह अनगढ़पन एकाध विनोदपरक कविताओं में ही दिखलाई पड़ा-उनका विनोद प्रायः आत्म-व्यंग्य के रूप में आता था-

जोरि जोरि अच्छर निचोरि चोरि औरन सों सरस कबित नवराग कौ गढ़ैया हौं,
पंडित प्रसिद्ध पंडिताई बिना जानै कछू तीसकम बत्तिसेक वेद को पढ़ैया हौं.
टाँय टाँय जानौं, कूकि कूकि पहिचानौं तत्त्व चिकिर चिकिर करि सुर कौ चढ़ैया हौं,
भाइयो भगिनि यो बताइए विचारि आजु शुक बनौं पिक बनौं कि गौरैया हौं.
तीसकम बत्तिसेक-तीस कम बत्तीस में (३२-३०=२) दो वेद पढ़ने वाला यानी द्विवेदी. तीसरी और चौथी पंक्ति में यथा क्रमत्व है-‘टाँय टाँय’ शुक की बोली, ‘कूकि कूकि’ कोयल की और चिकिर चिकिर गौरैया की है. कवित्त में रीतिकालीन विदग्धता मौजूद है. सिर्फ आत्म-हास और उसकी खड़खड़ाहट नई है. इसे भी फक्कड़पन के ही अंतर्गत समझना चाहिए.
इस रौ में पंडित जी ने और कविताएँ भी लिखी होंगी. एक कविता तो मैंने सुनी है. पंजाब विश्वाविद्यालय से 60 वर्ष में सेवा निवृत्त होने पर लिखी थी. उसमें ‘खूब बना रस छका’ और ‘व्योमकेश दरवेश चलो अब’ जैसे टुकड़े थे. ‘बनारस में श्लेष और व्योमकेश की दरवेशी।’ फक्कड़पन की बात.
द्विवेदी जी मूलतः जीवन की विसंगतियों, अनिश्चय, अस्थिरता आदि से अत्याधिक संवेदित, उद्वेलित होते थे. जीवन संघर्ष-संकुल था. निम्न-मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार में जन्म, अभावग्रस्त सुविधावंचित विद्यार्थी-जीवन, पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, यश-सम्मान के साथ-साथ काशी-निष्कासन भी. काशी से शांतिनिकेतन, शांतिनिकेतन से काशी, काशी से चंडीगढ़, चंढ़ीगढ़ से फिर काशी और काशी से फिर लखनऊ. सो फक्कड़पन जीवनदृष्टि भी थी, अपने को सँभालने का आश्वसान भी था-
रजनी-दिन नित्य चला ही किया मैं अनंत की गोद में खेला हुआ
चिरकाल न वास कहीं भी किया किसी आँधी से नित्य धकेला हुआ. द्विवेदी जी ने एक कविता देवेन्द्र सत्यार्थी पर लिखी है. भोजपुरी लोकगान की तर्ज पर. देवेन्द्र सत्यार्थी लोकगीतों को एकत्र करते थे अकेले घूम-घूमकर. यह फक्कड़पन का काम था, इसीलिए द्विवेदी जी को पसंद था-

पउलों तोरी चिठिया, बजवलों बधौआ कि सत्यार्थी भइया रे
तोरी डगर अकेल की सत्यार्थी भइया रे
लोकगान के संग्रही कविवर रामनरेश त्रिपाठी से भी पंडित जी की पटती थी. फक्कड़पन से कबीर की याद आना स्वाभाविक है. कबीर को यह विशेषण द्विवेदी जी ने ही दिया है. इस फक्कड़पन से गहरी, आंतरिक यातना छिप जाती है. कबीर का समाधान विषय था. लोग जलते हैं तो जलाशय में जाकर आग बुझाते हैं. कबीर की समस्या विषम थी. जलाशय उनकी आग बुझाने के बदले स्वयं जलने लगता था.

मों देख्याँ जलहर जलै संतो कहाँ बुझाऊँ. यह फक्कड़पन महँगा सौदा है. यह घरफूँक मस्ती है. जो दुनिया अपनी नहीं है, अपनी नहीं हो सकती, उसे फूँक देने, उसे त्याग देने से निश्चिंचतता आती है. बहुत कुछ पूस की रात के हरखू की फसल जलकर राख हो जाने के बाद वाली निश्चिंचतता. द्विवेदी जी के छत-फोड़ अट्टाहस का संबंध उसी से है. द्विवेदी जी को ऐसा फक्कड़पन जिसमें भी दिखता था, आत्मीयता की अनुभूति होती थी. उनके उपन्यासों, निबंधों में ऐसे फक्कड़ चरित्र और जीव बिखरे पड़े हैं. सीदी, मौला, अघोर, भैरव, कुटज, शिरीष आदि इसी तरह के है. द्विवेदी जी का बहुप्रयुक्त पदबंध, ‘दलित द्राक्षा के समान, सब कुछ लुटा देने की क्षमता’ का संबंध भी उनके फक्कड़पन से है. इस फक्कड़पन स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने वाला समाज ही अपने अंदर पैदा कर सकता था-या किसी आदर्श के लिए सब कुछ लुटाकर सुख पाने वाली साधना, जैसे कि भक्ति की साधना। द्विवेदी जी स्वाधीनता आंदोलन के दौर से कबीर-प्रेमी थे.
ब्रजभाषा की कविताएँ बहुत कुछ रीतिमुक्त कवियों के ढर्रे की हैं, जिनमें स्वदेश-प्रेम और सामाजिक रूढ़ियों से संतप्त जनों के प्रति कवि की करुणा बही है. प्रेमपरक कविताओं में प्रेम के उदात्त पक्ष का चित्रण और प्रेम के नाम पर ओछे आचरण करने वालों का तिरस्कार किया गया है. विषय राधा-रानी और मनमोहन है, किन्तु प्रेम का यह दृष्टिकोण वही है जो आगे चलकर बाणभट्ट की आत्मकथा और अन्य उपन्यासों में मिलता है-ऐसा प्रेम जो मानव-जीवन को सार्थक कर देता है, मनुष्य को जड़ता से मुक्त करके उच्च भूमि पर स्थित कर देता है.
प्रिय को सामने पाकर संकोच हो आना सच्चे प्रेमी का स्वभाव है. लम्पट प्रेम का प्रदर्शन तो करते ही हैं अवसर भी नहीं चूकते. हिन्दी कविता में संकोच-आचरण प्रायः नारियों द्वारा चित्रित किया गया है. द्विवेदी जी ने श्रृंगारपरक कविताओं में ऐसी सलज्ज संकोचपूर्ण स्थितियों का चित्रण और उसके कारण मन की हूक का मार्मिक चित्रण किया है-

आगे खरौ लखि नंद कौ लाल हमने सखि पैंड तजे री
कुंजन ओट चली सचुपाइ (सकुचाई?) उपाइ लगाइ तहौं तिन घेरी
मैं निदरे सखि रूप अनूपन कान्हर हू पर आँखि तरेरी
पै परी फास अरी मुसुकानि की प्रान बचाइ न लाख बचे री.
यह अनुभाव-सरणि बिहारी की तर्ज पर है. द्विवेदी जी रीतिकालीन कविताओं को सिर्फ दरबारी नहीं मानते थे. वे रीतिकालीन कविताओं में लोक-जीवन का चित्रण भी पाते थे. प्रेम-व्यापार सिर्फ सामंतों के जीवन में नहीं होता, लोक सामान्य जीवन में प्रेम मन के स्वास्थ्य और जीवन की स्वाभाविकता का परिचायक है. द्विवेदी जी की ब्रजभाषा में रचित श्रृंगारी कविताएँ ज्यादातर इसी तरह की हैं.
द्विवेदी जी की कविताओं में, उनके निबंधों की ही भाँति, सर्वत्र एक विनोद-भाव मिलता है. गंभीर चिंतन और व्यापक अध्ययन को सहज तौर पर हलके-फुलके ढंग से पाठक श्रोता पर बोझ डाले बिना प्रकट करना उनके व्यक्तित्व और लेखक की विशेषता और क्षमता है. इस विशेषता और क्षमता का संबंध भी फक्कड़पन से ही है. द्विवेदी जी लोकवादी विशेषण को पसंद नहीं करते थे, क्योंकि वे लोकवाद का संस्कृत में क्या अर्थ होता है, समझते थे. लेकिन वे महत्व सबसे अधिक लोक को देते थे. वे बोलियों, लोक-साहित्य, लोकधुनों और जन-प्रचलित लोक-साहित्य-रूपों पर अतीव गंभीरता से विचार करते थे. एक दलित जाति का प्रचलित गीत है-‘करौ जिन जारी हे गिरवरधारी’. यह गीत चमड़े का काम करने वाली दलित जाति एक विशेष लय में गाती है. पंडित जी पहले इस पंक्ति को उसी लय में गाते, फिर वैदिक मंत्र उसी लय में. निष्कर्ष प्रस्तुत करते कि चमार जाति की इस गीत-लय में वेद-पाठ की लय सुरक्षित है. लोकगान की परंपरा में.
सो गंभीर कथ्य को विनोद भाव से प्रस्तुत करने की भी धुनें हैं. उनमें एक प्रसिद्ध धुन नज़ीर अकबरवादी ने प्रयुक्त की है- ‘क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन’.
अब द्विवेदी जी की यह कविता पढ़िए-
काली घटा बढ़ती चली आती है गगन पर,
झुक झूम-झूम पेड़ हैं अलमस्त मगन, पर-
साहित्य का सेवक किसी मसले में है उलझा,
सुलझाना चाहता है पै पाता नहीं सुलझा.
ऐसे ही समय आके कोई डाकिया हरिहर,
‘पंडित जी’ कह पुकार उठा रूम के बाहर.
बुकपोस्ट के बंडल हैं कई, पाँच-सात-दस
इन पोथों में शायद ही हो रस का दरस-परस.
फिर एक-एक को समालोचक है खोलता,
कुंचन ललाट पर है और होठ डोलता.
‘उँह मारिए गोली, वही अनुरोध लेख का,
कुछ देख-रेख का तथा कुछ मीन-मेष का.’
फिर खोलता है एक सुविख्यात-सा परचा,
सर्वत्र धूम जिसकी है सर्वत्र ही चरचा.

पहला ही पृष्ठ देख के कुछ उन्मना हुआ,
दो-चार और देख के दिल चुनमुना हुआ.
फिर एक पृष्ठ और, हाथ माथे पै गया!
आँखें गईं पथरा जो पृष्ठ खोले है नया!
पढ़-पढ़ के ले रहा है उसाँसें हज़ारहा,
आकाश मगर शान से बरसे ही जा रहा.
पारे का सा दरियाव चहुँ ओर उछलता,
बच्चों का दल उसे है लूटने को मचलता.
टूप-टाप टूप-टाप टूप-टाप टूप-टाप,
बच्चे क्या, मचल जाएँ जो बच्चों के बड़े बाप.....
इस कविता की शब्दावली पर गौर कीजिए. कविता 1940 के आसपास लिखी गई होगी. 1950 से पहले तो निश्चित। द्विवेदी जी ने 1950 में शांति निकेतन छोड़ दिया था. संवेदना गैररोमांटिक है और शब्दावली रोज़मर्रा की. पात्र कल्पित नहीं. डाकिया हरिहर है. ‘पंडित जी कह पुकार उठा रूम के बाहर’. बुकपोस्ट में पाँच, सात, दस बंडल हैं-साहित्य की पोथियों के. किन्तु-‘इन पोथों में शायद ही हो रहा रस का दरस-परस.’ उधर आकाश शाम से बरसे जा रहा है. चहुँ ओर पारे का गरियाव उछल रहा है, इस उपमा पर गौर कीजिए. बरसात की बूँदों के लिए अछूती है. और नाद बिंब की यह आवृत्ति जो कविता की एक पूरी पंक्ति बन जाती है-टूप-टाप, टूप-टाप, टूप-टाप, टूप-टाप’.
अनौपचारिक वार्तालाप यानी बतरस का मज़ा देती हुई इस कविता का कथ्य क्या है?

सारी उमर लेखक ने की ज्योतिष की पढ़ाई,
पर बम्बई वाले ने फतह कर ली लड़ाई.
बंगाल के इस बोलपुर में कटी उमर,
खजाना मगर तिलिस्म का पहुँचा है अमृतसर.
दिन तीन ही में काले हो जाएँ सफेद केश,
ऐसा गया का एक करामाती है दरवेश.
मस्तानी दवा जो है इटावे से चल पड़ी,
क्या वह भी न मिल सकती है लेखक को इस घड़ी.
चटकीले बहुत से पड़े विज्ञापनों के ठाट,
मैनेजरों ने हैं दिए पन्ने सभी ही पाट.
देख इश्तिहार चूर्ण का मोदक वरास्त्र का,
दिलखुश का, सेंट-सोप का और कोकशास्त्र का.
यह झीन-सीन गेंद का आश्चर्य मलहम का,
सब चूर-चूर हो गया अभिमान कलम का.
कविता में लय का प्रवाह अनवरूद्ध नहीं है, प्रसंग के अनुसार दीर्घ, ह्रस्व का विधान करना पड़ता है, कहीं देर तक ठहरना पड़ता है, कहीं जल्दी से दौड़ जाना पड़ता है. जैसे ‘मैनेजरों ने हैं दिए पन्ने सभी ही पाट’ में मैनेजरों के ‘ने’ पर ठहरना है और ‘देख इश्तिहार चूर्ण में ‘ख’ के साथ इश्तिहार के ‘इ’ को मिलाकर ‘रिव’ पढ़ने से प्रवाह बनेगा. शास्त्र को व्यवहार से जीवित रखना होगा। खै़र!
साहित्यिक पत्रिका या पुस्तक में ‘चटकीले बहुत से पड़े विज्ञापनों के ठाट’. ‘मैनेजरों ने हैं दिए पन्ने सभी ही पाट’. आजकल हम लोग जिस उपभोक्ता संस्कृति की बात करते हैं, टाइम्स ऑफ इण्डिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडिया टुडे, यहाँ तक कि हिन्दी के दैनिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स आदि में प्रथम पृष्ठ पर नेताओं के फोटुओं की जगह माडेल्स ने ले ली है, भारतीय संस्कृति का खजुराहो संस्करण छाया हुआ है, उसकी शुरुआत हो चुकी थी और ज्योतिषाचार्य पं.हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उस पर कविता भी लिख दी थी. विज्ञापनी संस्कृति के कारण साहित्य की दुर्दशा को चित्रित करने वाली खड़ी बोली हिन्दी की और शायद उर्दू की भी यह पहली कविता है.

ठाठ व्यक्तिपरक निबंध का है. वही मामूली-सी बात से शुरुआत करके, विविध प्रसंगों से बहलाते-फुसलाते बतरस, अनौपचारिक आत्मीय ढंग से किसी निर्णायक ऐतिहासिक मुद्दे पर पहुँचा देना. कविता में निबंध की विधा का उपयोग करना मामूली बात नहीं. इसे कविता से गद्य में कर दें तो यह परसाई के व्यंग्य-निबंध जैसा हो जाएगा. लेकिन वाचन-लय से उत्पन्न प्रभाव त्यागकर कहानी का प्रभाव ज्यादा ग्रहण कर लेगा. इस विज्ञापनी संस्कृति से घाटा साहित्यकार को है-‘सब चूर-चूर हो गया अभिमान कलम का’.
द्विवेदी जी ने संस्कृत और अपभ्रंश में भी कविता की है. कविता क्या की है, हाथ आजमाया है. पंत जी की या मंडन की कविताओं का ऐसा अनुवाद किया है कि वे अनुवाद नहीं लगतीं. पंत जी की प्रसिद्ध पंक्तियों-

छोड़ द्रुमों की यह छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन। का संस्कृत अनुवाद यों किया है-
त्यक्तवा द्रुमाणमिह मंजुलाम्याम् विहाय मायां प्रकृतेरुदाराम्
बालो सुजाले तव कुंतलानां कथं प्रबहनामि विलोचने में द्विवेदी जी दूसरों की पंक्तियों को संदर्भ में बिठलाकर ग्रहण कर लेते हैं और अपनी पंक्तियाँ दूसरों के हवाले कर देते हैं. उनकी रचनाओं में यह कौशल ऐसा रचा-बसा है कि कई बार इस बात का पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि पंक्तियाँ किसकी हैं। चारुचंद्र लेख में वर्णन है-रानी की दृष्टि युगलमूर्ति की ओर गई. हम दोनों ने साष्टांग प्रणाम किया. बाहर नारी माता की मधुर स्तुति सुनाई पड़ी-
गताऽहं कालिंदीं गृहसलिलया नेतुमनसा
घनद घोरैर्मेघै गगनमभितौ मेदुरमभूत्
मृशं धारासारैरपतमसहाया क्षितितले
ज्यत्वङ्के गृहणान्पटुनट कलः कोऽपि चपलः. जानकर ही समझेगा कि ये पंक्तियाँ ब्रजभाषा कवि मंडल के सवैये का अनुवाद हैं-

भालि हौं तो गई जमुना जल को सो कहा कहौ वीर विपति परी.
घहराय कै कारी घटा उनई इतनेई में गागर सीस धरी।.
रपट्यो पग घाट चढ़यो न गयो कवि मंडल हवै कै बिहाल गिरी.
चीर जीवहु नंद को बारो अरी! गहि बाँह गरीब ने ठाढ़ी करी.
पुनर्नवा में मंजुला ने देवरात को पत्र लिखा है. पत्र में अपभ्रंश दोहा है-

दुल्लह जण अणुराउ गरु लज्ज बरब्बसु प्राणु.
सहि मणु विसम सिणेह बसु मरणु सरणु णहु आणु।. यह दोहा द्विवेदी जी की ही रचना है. मैंने त्रिलोचन शास्त्री और नामवर जी से बारहा पूछा कि बाणभट्ट की आत्मकथा का वस्तु-संकेतक यह श्लोक कहाँ से उद्धत है. स्रोत का पता नहीं चलता.

जलौघमग्ना सचराचरा धरा
विषाण कोट या ऽखिल विश्व मूर्त्ति ना.
समुद्धृता येन बराह रूपिणा.
समे स्वयंभू भगवान् प्रसीदतु।.
अनुमानतः यही भी आचार्य द्विवेदी जी की रचना है. द्विवेदी जी मन में मौज उठने पर संस्कृत, हिन्दी, खड़ीबोली, अपभ्रंश, भोजपुरी-किसी में रचना करते थे. भाषा आयोग के सदस्य के रूप में गवाही लेने के बाद सी.वी.रमन पर श्लोक लिखा था-मुझे पूरा नहीं याद है-स्मृति से लिख रहा हूँ-
मनोहरां तां मांग्ल मनोभवां..
स एष सी.बी.रमणो महात्मा
हा हंत नीबी रमणो बभूव।
हिन्दी के प्रति रमण महोदय के मन में जो अवज्ञा थी उससे आहत होकर पंडित जी ने लिखा होगा.
द्विवेदी जी की बिखरी लुप्तप्राय छोटी-बड़ी रचनाओं की खोज की जानी चाहिए. उन्हें संकलन में शामिल किया जाना चाहिए. समाधिस्थ शिव का चित्रण करने वाली कालिदास की पंक्तियों का हिन्दी में पद्यानुवाद किया था. पहली पंक्ति है-

बैठे संयमी त्रिलोचन शिव द्विवेदी जी स्वप्नजीवी थे, यथार्थ-द्रष्टा भी. उनकी दो वैचारिक कविताएँ (आप चाहें तो विचार कविताएँ भी कह लीजिए) निबंध के रूप में (नवें खंड) छपी हैं. ‘रे कवि एक बार सम्हल’ और ‘बोलो, काव्य के मर्मज्ञ’. इसमें उन्होंने अपनी दुविधा का बयान किया है, कल्पना में भारत का स्वर्णिम अतीत है और आँखों के सामने वर्तमान की दुर्दशा.
‘मन में रमे हैं पूर्व युग के स्वर्ण मणिमय सौध’ किन्तु ‘आँखें देखती हैं ठठरियों के ठाठ, चिथड़ों के घृणास्पद ढूह’
अपने इस व्यक्तित्व के बारे में वे लिखते हैं-
मैं हूँ स्वयं जिन प्रतिवाद...मैं हूँ उभय तो विभ्रष्ट, अधर कलंक रंक त्रिशंकु.
यथार्थ देखकर कवि कहता है-
सत्यानाथ हो उस विधि-व्यवस्था का
कि जिसने चूसना ही है सिखाया मनुज को नरात्य का,
विध्वंस हो उस नीति का जिसने कि झूठी मानसिक उन्मादना को
नाम दे देकर महामहिमा समन्वित बाँध रखा है
मनुज को दीनता के पाश में. कविता में आगे सामान्य जन को अपार संभावनाओं वाला बताया गया है-तू धूल में लिपटे हुए जनों को क्या समझता है. ये हिमालय की जड़ खोद सकते हैं, जलधि को पाट सकते हैं-

कि अरे इन खुफ्त गाने खाक को तू क्या समझता है
कि ये जड़ खोद सकते हैं हिमालय की, पाट सकते जलधि को वंचित, अभावग्रस्त जन की शक्ति पर इतना भरोसा. कविता पर कम भरोसा. इतने बड़े-बड़े सरस्वती-पुत्रों की कविता क्या कर पाई! वाल्मीकि, व्यास, कालिदास की कविता से मनुष्य समाज में हिंसा, घृणा, पाशविकता कम हुई? नहीं फिर सारा काव्य व्यर्थ है-
फिर क्यों काव्य का अभिमान?
फिर क्यों व्यर्थ अभिसम्पात?
फिर क्यों यह अरण्य –निनाद?
फिर क्यों कलम कण्डूयन
वृथा वाग्जाल! व्यर्थ प्रयास! यह निराशा उस चिंतक कवि की है, जो बार-बार मनुष्य की जय-यात्रा की बात करता है. मनुष्य की जय-यात्रा और कवि की व्यर्थता दोनों साथ-साथ हैं. इसीलिए वे भावुक और एकांगी नहीं हैं. द्विवेदी जी इकहरे चिंतक कवि नहीं. वे मानव-इतिहास और व्यक्तित्व की सफलता-विफलता को साथ-साथ देखते हैं. विरोधी भाव-दशा में वे विरोधी बातें करते जान पड़ते हैं, किन्तु यह वह मानवीय संवेदना है जो इतिहास की द्वंद्वात्मकता पर नज़र रखती है और युग-बोध की धार पर खराद कर नए मनुष्य को गढ़ने का प्रयास करती है. द्विवेदी जी की काव्य-दृष्टि मनुष्य की उच्चता और नीचता दोनों को देखती है. इसीलिए कविताओं में संवेदना और समझ का संयोग है.
------------------विश्वनाथ त्रिपाठी कृत सभार
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Friday, June 13, 2008

टूटी हुई बिखरी हुई

सआदत हसन मंटो का अफ़साना नंगी आवाजें
मंटो की कहानियाँ मेहनतकश जनता के मनोजगत का दस्तावेज़ भी हैं. सुनिये नंगी आवाज़ें और महसूस कीजिये उस मानवीय करुणा का ताप, जिसे बाहर रहकर पेश कर पाना बडे जिगरे का काम है.
(यहां क्लीक करें)
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Tuesday, June 10, 2008

ज़िल्लत की रोटी









इन दिनों अक्सर यह लगता है कि हम किसी महानाटक के बीचों-बीच उलझे हुए हैं. हालाँकि यह पता करना आसान नहीं कि इसे कब और कितना हम बाहर होकर देख रहे हैं और कब अपना आपा खोकर इसमें इसी के एक किरदार की तरह शरीक हो गए हैं. इस नए रंगमंच पर मुफ़्तखोर लम्पट पूँजी के कुटिल खेलों ने लगभग एक विराट बम्बइया फिल्म की शक़्ल अख़्तियार कर ली है. पिछले दिनों अन्तर्राष्टीय और राष्टीय पैमाने के कितने ही हत्या- अनुष्ठानों और फासीवादी पूर्वाभ्यासों को हमने दूरदर्शन के ‘सोप ऑपेरा’ की तरह कमरों में बैठकर देखा है.

नई दुनिया के ज़िद्दी और मग़रूर शहंशाह अपना निरंकुश बुलडोज़र लेकर इन दिनों राष्ट्र-राज्यों की सरहदों, राजनीतिक-आर्थिक संरचनाओं और पेचीदा रास्तों को मिस्मार करते और रौंदतें हुए एक नया भूगोल रचने का दुर्दांत अभियान चला रहे हैं. नए नक़्शे में दुनिया की शक़्ल एक खुले चरागाह की है. इस मुहिम के नतीजे में तबाही, अफ़रातफ़री और बदहवासी का भयानक दृश्य सामने है. यह एकल प्रलय जैसा दृश्य है.

अभी इस विध्वंसलीला की शुरुआत है लेकिन यह स्पष्ट है कि सामाजिक संरचनाओं में विस्फोटों और अन्तःस्फोटों की एक श्रृंखला चल पड़ी है और उखड़ने-उजड़ने और टूटने-बिखरने के विनाशकारी भीषण दृश्य अभी और भी देखने होंगे.
हम अपने सामने पुराने नवजागरणकालीन उदारवाद का आत्मसमर्पण, पतन और विसर्जन घटित होते हुए देख रहे हैं. ऐसे में नागरिक-समाज के निर्माण की विशद् कार्यसूची को परे धकेलते हुए राज्य, समाज और संस्कृति के निरंकुश पुनर्गठन का विचार प्रचारित और प्रतिष्ठित किया जा रहा है. शासक तबकों, नए दौलतमंदों और खाते-पीते मध्यवर्ग में ख़ासतौर पर लोकप्रिय ‘कल्चरल लुंपेनिज़्म’ हमारे युग में सांस्कृतिक जागरण की शक्ल में सामने आ रहा है. ज़ाहिल उपभोग और अपराध की संस्कृति सामाजिक प्रतिक्रियावाद की ताकतों और फासीवादी तत्त्वों के कुटिल गठजोड़ से इसे भीड़ का उन्माद जगानेवाले अन्धलोकवाद के आक्रमण रूपों में पेश कर रही है. नृशंसता के इस अश्लील उत्सव के पीछे मनुष्यद्रोह की विचारधारा और निर्बल-निर्धन आबादी के प्रति हिंसक हिक़ारत के भाव को आसानी से देखा जा सकता है.

परिस्थिति के जिस तर्क से असंगठित, असहाय, उत्पीड़ित आबादियाँ भारी मार झेल रही हैं; उसी तर्क से रचना, विचार या आविष्कार की अभी तक उपलब्ध जगह तेज़ी से गायब हो रही है. भोलेभाले बन कर लेखन या कविताई करना आज भी कोई मुश्किल काम नहीं है. लेकिन एक गम्भीर रचनाकार के लिए इतिहास की इस घड़ी की उद्धिग्नताएँ, बेचैनियाँ, विकलताएँ कशमकश और दबाव काफ़ी तीखे और कठिन हैं, लेकिन अनिवार्य भी हैं. हालाँकि उनसे बचने के तमाम रास्ते हमेशा उपलब्ध हैं.

मनुष्य और उसकी रचनात्मक ऊर्जा के अवमूल्यन और उसके स्वत्व और उसकी गरिमा की तिरस्कारपूर्ण अवहेलना के जिस अपदृश्य से इस समय हम रूबरू हैं उसे देखने और खड़े रहने के लिए भी काफी जीवट चाहिए. कहा जा सकता है कि समकालीन रचनाशीलता ख़ासकर कविता ने इस जीवट का परिचय दिया है और इस अपमानपूर्ण परिस्थिति से कोई ख़ास समझौता नहीं किया है. लेकिन इतना काफ़ी नहीं है.

नई परिस्थित की एक विशेषता यह है कि इसने प्रतिरोध का एक अभूतपूर्व विराट समाजिक क्षेत्र खोल दिया है, जिसमें नए हस्तक्षेप और नई रचनात्मक कल्पना के लिए अपार सम्भावनाएँ छिपी हैं जो कुछ-कुछ सामने भी आने लगी हैं. अनेक आसानियाँ और झूठी तसल्लियाँ जो थीं, फिलहाल नहीं हैं और अलक्षित असम्बोधित प्रश्नों को टालना अब लगभग नामुमकिन है.

गरीब आबादी वंचित तबकों के लिए नागरिक समाज के निर्माण की लोकतान्त्रिक कार्यसूची अप्रासंगिक नहीं हुई है, बल्कि यह उनके पहले से कहीं ज़्यादा जीवन-मरण का प्रश्न है. इस विशाल आबादी में इस समय जनतन्त्र का हिस्सा बनने और उसे विस्तृत और सामभूत बनाने के लिए अभूतपूर्व व्याकुलता और सचे्ष्टता दिखाई दे रही है. लेकिन गहरे ऐतिहासिक रिश्ते के बावजूद प्रतिरोध की ऊर्जा के ये नए स्रोत समकालीन रचनाशीलता से दूर दिखाई देते हैं. अकिंचनता के खोल में शरण लेकर रचना की आज़ादी और उसकी जगह को ज़्यादा समय नहीं बचाया जा सकता. अनुकूलन या आत्मविसर्जन का ख़तरा पूरा है. रचना का देश-काल इस वक़्त प्रतिरोध पक्षनिर्माण और सामाजिक रूपान्तरण या पुनर्रचना के बड़े संघर्षों और उपायों से सक्रिय सम्बन्ध बनाकर ही पुनः प्राप्त किया जा सकेगा.

______________ मनमोहन, ज़िल्लत की रोटी की भूमिका
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Saturday, June 7, 2008

तीसरा क्षण


आज से कोई बीस साल पहले की बात है. मेरा एक मित्र केशव और मैं दोनों जंगल-जंगल घूमने जाया करते. पहाड़-पहाड़ चढ़ा करते, नदी-नदी पार किया करते. केशव मेरे-जैसा ही पन्द्रह वर्ष का बालक था. किन्तु वह मुझे बहुत ही रहस्यपूर्ण मालूम होता. उसका रहस्य बड़ा ही अजीब था. उस रहस्य से मैं भीतर ही भीतर बहुत आतंकित रहता. केशव ने ही बहुत-बहुत पहले मुझे बताया कि इड़ा, पिगंला और सुषुम्ना किसे कहते हैं. कुण्डलिनी चक्र से मुझे बड़ा डर लगता. उसने हठयोगियों की बहुत-सी बातें बड़े ही विस्तार के साथ वर्णन कीं.

केशव का सिर पीछे से बहुत बड़ा था. आगे की ओर लम्बा और विस्तृत था. माथा साधारण और घनी-घनी भौंहों के नीचे काली आँखें, बहुत गहरी, मानो दो कुएँ पुतली के काँच से मढ़े हुए हों. यह भी लगता कि उसकी आँखें और जमी हुई हैं. आँखों के बीच, नाक की शुरुआत पर घनी-घनी भौहों की दोनों पट्टियाँ नीचे झुककर मिल जाती थीं. कभी-कभी नाई द्वारा वह इस मिलन-स्थल पर भौहों के बाल कटवा लेता. लेकिन उनके रोएँ फिर उग आते. आँखों के नीचे फीका-पीला, लम्बा, शिथिल और उकताया हुआ थका चेहरा था.

केशव मझोले कद का बालक था जिसे खेलने-कूदने से कोई मोह नहीं था. उसका गणित विषय अच्छा था. इसीलिए केशव मेरे लिए मिडिल और मैट्रिक में जरूरी हो उठा था. फिर भी मैं केशव के प्रति विशेष उत्साहित नहीं था. मुझे प्रतीत हुआ कि वह मेरे प्रति अधिक स्नेह रखता है. वह मेरे पिताजी के श्रद्धेय मित्र का लड़का था इसलिए उसके वहाँ मेरा काफी आना-जाना था. केवल एक ही बात उसमें और मुझमें समान थी. वह बड़ा ही घुमक्कड़ था. मैं भी घूमने का शौकीन था. हम दोनों सुबह-शाम और छुट्टी के दिनों में तो दिन-भर दूर-दूर घूमने जाया करते.

इसके बावजूद उसका लम्बा चेहरा फीका और पीला रहता. किन्तु वह मुझसे अधिक स्वस्थ था, उसका डील ज्यादा मजबूत था. वह निस्सन्देह हट्टा-कट्टा था. फिर भी उसके चेहरे की त्वचा काफी पीली रहती। पीले लम्बे चेहरे पर घनी भौंहों के नीचे गहरी-गहरी काली चमकदार कुएँ-नुमा आँखें और सिर पर मोटे बाल और गोल अड़ियल मजबूत ठुड्डी मुझे बहुत ही रहस्य-भरी मालूम होती. केशव में बाल-सुलभ चंचलता न थी वह एक स्थिर प्रशान्त पाषाण-मूर्ति की भाँति मेरे साथ रहता.

मुझे लगता कि भूमि के गर्भ में कोई प्राचीन सरोवर है. उसके किनारे पर डरावने घाट, आतंककारी देव-मूर्तियाँ और रहस्यपूर्ण गर्भ-कक्षोंवाले पुराने मन्दिर हैं. इतिहास ने इन सबको दबा दिया। मिट्टी की तह पर तह, परतों पर परतें, चट्टानों पर चट्टानें छा गयीं. सारा दृश्य भूमि में गड़ गया, अदृश्य हो गया. और उसके स्थान पर यूकैलिप्ट्स के नये विलायती पेड़ लगा दिये गये. बंगले बना दिये गये. चमकदार कपड़े पहने हुई खूबसूरत लड़कियाँ घूमने लगीं. और उन्हीं-किन्हीं बंगलों में रहने लगा मेरा मित्र केशव जिसने शायद पिछले जन्म में या उसके भी पूर्व के जन्म में उसी भूमि-गर्भस्थ सरोवर का जल पिया होगा, वहाँ विचरण किया होगा.

मनुष्य का व्यक्तित्व एक गहरा रहस्य है-इसका प्रथम भान मुझे केशव द्वारा मिला-इसलिए नहीं कि केशव मेरे सामने खुला मुक्त हृदय नहीं था. उसके जीवन में कोई ऐसी बात नहीं थी जो छिपायी जाने योग्य हो. इसके अलावा वह बालक सचमुच बहुत दयालु, धीर-गम्भीर, भीषण कष्टों को सहज ही सह लेनेवाला, अत्यन्त क्षमाशील था. किन्तु साथ ही वह शिथिल, स्थिर, अचंचल, यन्त्रवत् और सहज-स्नेही था. उसमें सबसे बड़ा दोष यह था कि उसमें बालकोचित, बाल-सुलभ गुण-दोष नहीं थे. मुझे हमेशा लगा कि उसका विवेक वृद्धता का लक्षण है.

जब हम हाई-स्कूल में थे, केशव मुझे निर्जन अरण्य-प्रदेश में ले जाता. हम भर्तृहरि की गुहा, मछिन्दरनाथ की समाधि आदि निर्जन किन्तु पवित्र स्थानों में जाते. मंगलनाथ के पास शिप्रा नदी बहुत गहरी, प्रचण्ड मन्थर और श्याम-नील थी. उसके किनारे-किनारे हम नये-नये भौगोलिक प्रदेशों का अनुसन्धान करते. शिप्रा के किनारों पर गैरव और भैरव साँझें बितायीं. सुबहें और दुपहर अपने रक्त में समेट लीं. सारा वन्य-प्रदेश श्वास में भर लिया. सारी पृथ्वी वक्ष में छिपा ली.
मैंने केशव को कभी भी योगाभ्यास करते हुए नहीं देखा, न उसने कभी सचमुच ऐसी साधना की. फिर भी वह मुझसे योग की बातें करता. सुषुम्ना नाड़ी के केन्द्रीय महत्त्व की बात उसने मुझे समझायी. षट्चक्र की व्यवस्था पर भी उसने पूर्ण प्रकाश डाला. मेरे मन के अँधेरे को उसके प्रकाश ने विच्छिन्न नहीं किया. किन्तु मुझे उसके योग की बातें रहस्य के मर्मभेदी डरावने अँधेरे की भाँति आकर्षित करती रहती मानो मैं किन्हीं गुहाओं के अँधेरे में चला जा रहा हूँ और कहीं से (किसी स्त्री की) कोई मर्मभेदी पुकार मुझे सुनाई दे रही है.
मैंने अपने मन का यह चित्र उसे कह सुनाया. वह मेरी तरफ अब पहले से भी अधिक आकर्षित हुआ. बहुत सहानुभूति से मेरी तरफ ध्यान देता. धीरे-धीरे मैं उसके अत्यन्त निकट आ गया. उसकी सलाह के बिना काम करना अब मेरे लिए असम्भव हो गया था.

साधारण रूप से, मेरे मन में उठनेवाली भाव-तरंगें मैं उसे कह सुनाता-चाहे वे भावनाएँ अच्छी हों, चाहे बुरी, चाहे वे खुशी करने लायक हों, चाहें ढाँकने लायक। हम दोनों के बीच एक ऐसा विश्वास हो गया था कि तथ्य का अनादर करना, छुपाना, उससे परहेज करके दिमागी तलघर में डाल देना न केवल गलत है, वरन् उससे कई मानसिक उलझनें होती हैं.
एक बात कह दूँ. अपने खयाल या भाव कहते समय मैं बहुत उच्छ्वसित हो उठता. मुझे लगता कि मन एक रहस्यमय लोक है. उसमें अँधेरा है. अँधेरे में सीढ़ियाँ है. सीढ़ियाँ गीली हैं. सबसे निचली सीढ़ी पानी में डूबी हुई है. वहाँ अथाह काला जल है. उस अथाह जल से स्वयं को ही डर लगता है. इस अथाह काले जल में कोई बैठा है. वह शायद मैं ही हूँ. अथाह और एकदम स्याह-अँधेरे पानी की सतह पर चाँदनी का एक चमकदार पट्टा फैला हुआ है, जिसमें मेरी ही आँखें चमक रही हैं, मानो दो नीले मूँगिया पत्थर भीतर उद्दीप्त हो उठे हों.

मेरे मन के तहखाने में उठी हुई ध्वनियाँ उसे आकर्षित करतीं। धीरे-धीरे वह मुझमें ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा. मैं जब उसे अपने मन की बातें, कह सुनाता तो वह क्षण-भर अपनी घनी भौंहोंवाली प्रशान्त-स्थिर आँखों से मेरी तरफ देखता रहता. साधारण बातें, जो कि हमारे समाज की विशेषताएँ थीं, हमारी चर्चा का विषय बनतीं. यद्यपि उसकी ज्ञान-सम्पत्ति अल्प ही थी, हमारी चर्चाएँ विविध विषयों पर होतीं. मुझे अभी तक याद है कि उसने मुझे पहली बार कहा था कि गाँधीवाद ने भावुक कर्म की प्रवृत्ति पर कुछ इस ढंग से जोर दिया है कि सप्रश्न बौद्धिक प्रवृत्ति दबा दी गयी है. असल में यह गाँधीवादी प्रवृत्ति प्रश्न, विश्लेषण और निष्कर्ष की बौद्धिक क्रियाओं का अनादर करती है. यह बात उसने मुझे तब कही थी जब सन् तीस-इकतीस का सत्याग्रह खत्म हो चुका था और विधान सभाओं में घुसने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही थी. तब हम स्थानीय इण्टरमीडिएट कॉलेज के फर्स्ट ईअर में पढ़ते थे. तभी हमने रूस के पंचवर्षीय आयोजन का नाम सुना था.
इसके बाद हम डिग्री कॉलेज में पहुँचे-किसी दूसरे शहर में. मुझे नहीं मालूम था कि केशव ने भी वही कॉलेज जॉयन किया है. मैंने उसके बारे में जानकारी लेने की कोई कोशिश भी नहीं की थी. सच तो यह है कि मेरा उसके प्रति कोई विशेष स्नेह नहीं था, न कोई आकर्षण। ऐसे पाषाणवत्, प्रशान्त, गम्भीर व्यक्ति मुझे पसन्द नहीं। हाँ, उसके प्रति मेरे मन में सम्मान और प्रशंसा के भाव थे, और चूँकि वह मुझे बहुत चाहता था, इसलिए मुझे भी उसे चाहना पड़ता था. शायद उसे मेरी यह स्थिति मालूम थी. लेकिन कभी उसने अपने मन का भाव नहीं दरशाया इस सम्बन्ध में.
और, एक बार, जब हम दोनों फोर्थ ईअर में पढ़ रहे थे वह मुझे कैण्टीन में चाय पिलाने ले गया. केवल मैं ही बात करता जा रहा था. आखिर वह बात भी क्या करता-उसे बात करना आता ही कहाँ था. मुझे फिलॉसफी में सबसे ऊँचे नम्बर मिले थे. मैंने प्रश्नों के उत्तर कैसे-कैसे दिये, इसका मैं रस-विभोर होकर वर्णन करता जा रहा था. चाय पीकर हम दोनों आधी मील दूर एक तालाब के किनारे जा बैठे. वह वैसा ही चुप था. मैंने साइकोऐनलिसिस की बात छेड़ दी थी. जब मेरी धारा-प्रवाह बात से वह कुछ उकताने लगता तब वह पत्थर उठाकर तालाब में फेंक मारता. पानी की सतह पर लहरें बनतीं और डुप्प-डुप्प की आवाज.

साँझ पानी के भीतर लटक गयी थी. सन्ध्या तालाब में प्रवेश कर नहीं रही थी. लाल-भड़क आकाशीय वस्त्र पानी में सूख रहे थे. और मैं सन्ध्या के इस रंगीन यौवन से उन्मत्त हो उठा था. हम दोनों उठे चले, और दूर एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो रहे. एकाएक मैं अपने से चौंक उठा. पता नहीं क्यों, मैं स्वयं एक अजीब भाव से आतंकित हो उठा. उस पीपल-वृक्ष के नीचे अँधेरे में मैने उससे एक अजीब और विलक्षण आवेश में कहा, ‘‘शाम, रंगीन शाम, मेरे भीतर समा गयी है, बस गयी है. वह एक जादुई रंगीन शक्ति है. मुझे उस सुकुमार ज्वाला-ग्राही जादुई शक्ति से-यानी मुझसे मुझे डर लगता है.’’ और सचमुच, तब मुझे एक कँपकँपी आ गयी !! इतने में शाम साँवली हो गयी. वृक्ष अँधेरे के स्तूप-व्यक्तित्व बन गये. पक्षी चुप हो उठे. एकाएक सब ओर स्तब्धता छा गयी. और, फिर इस स्तब्धता के भीतर से एक चम्पई पीली लहर ऊँचाई पर चढ़ गयी. कॉलेज के गुम्बद पर और वृक्षों के ऊँचे शिखरों पर लटकती हुई चाँदनी सफेद धोती सी चमकने लगी.

एकाएक मेरे कन्धे पर अपना शिथिल ढीला हाथ रख केशव ने मुझसे कहा, याद है एक बार तुमने सौन्दर्य की परिभाषा मुझसे पूछी थी ? मैंने उसकी बात की तरफ ध्यान न देते हुए बेरुखी-भरी आवाज में कहा, हाँ.
‘‘अब तुम स्वयं अनुभव कर रहे हो.’’
मैं नहीं जानता कि मैं क्या अनुभव कर रहा था. मैं केवल यही कह सकता हूँ कि किसी मादक अवर्णनीय शक्ति ने मुझे भीतर से जकड़ लिया था. मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि उस समय मेरे-अन्तःकरण के भीतर एक कोई और व्यक्तित्त्व बैठा था. मैं उसे महसूस कर रहा था. कई बार उसे महसूस कर चुका था. किन्तु अब तो उसने भीतर से मुझे बिलकुल ही पकड़ लिया था. ‘‘मैं जो स्वयं था वह स्वयं हो गया था. अपने से ‘बृहत्तर’, विलक्षण अस्वयं.’’ एकाएक उस पाषाण-मूर्ति-मित्र की भीतरी रिक्तता पर मेरा ध्यान हो आया. वह मुझसे कितना दूर है, कितना भिन्न है, कितना अलग है-अवांछनीय रूप से भिन्न !!

वह मुझसे पण्डिताऊ भाषा में कह रहा था, किसी वस्तु या दृश्य या भाव से मनुष्य जब एकाकार हो जाता है तब सौन्दर्य बोध होता है. सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट वस्तु और उसका दर्शन, इन दो पृथक् तत्त्वों का भेद मिटकर सब्जेक्ट ऑब्जेक्ट से तादात्म्य प्राप्त कर लेता है तब सौन्दर्य भावना उद्बुद्ध होती है !!
मैंने उसकी बात की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया. सौन्दर्य की परिभाषा वे करें जो उससे अछूते हैं, जैसे मेरा मित्र केशव! उनकी परिभाषा सही हो तो क्या, गलत हो तो क्या! इससे क्या होता जाता है !!
दिन गुजरते गये. एक ही गांव के हम दो साथी, भिन्न प्रकृति के, भिन्न गुण-धर्म के, भिन्न दशाओं के। एक-दूसरे से उकता उठने के बावजूद हम दोनों मिल जाते. चर्चा करने लगते. मेरी कतरनी जैसी चलती. केशव साँकल में लगे हुए, फिर भी खुले हुए, ढीले ताले-सा प्रतीत होता. कोई मकान के अन्दर जाये, देख-भाल ले, चोर-चपाटी कर ले, लेकिन जाते वक्त साँकल में ताला जरूर अटका जाये, वह भी खुला हुआ; चाबी लगाने की जरूरत नहीं. ताला भीतर से टूटा है, चाबी लग ही नहीं सकती.

लेकिन इस ताले में एक दिन अकस्मात चाबी भी लग गयी. छुट्टी का दिन। वृक्षों के समीप धूप अलसा रही थी. मैं घर में बैठे-बैठे ‘बोर’ हो रहा था. मैंने साइकिल पर आते हुए और धूप में चमकते हुए एक चेहरे को दूर से देखा. इधर मैंने काफी कविताएँ लिख ली थीं. सोचा, शिकार खुद ही जाल में फँसने आ रहा है. केशव का चेहरा उत्तप्त था. चेहरे पर कुछ नयी बात थी जिसको मैं पहचान नहीं पाया. कविताओं से मुझे इतनी फुरसत नहीं थी कि केशव की तरफ ध्यान दे सकूँ. मैं तो अपने नशे में रहता था.
अगर मैं बोलना न शुरू करता तो चुप्पी काली होकर घनी और घनी होकर और भी काली और लम्बी हो जाती. इसलिए मैंने ही बोलना शुरू किया, ‘‘कैसे निकले?’’

केशव गरदन एक ओर गिराकर रह गया. उसके बाल तब आधे माथे पर आ गये. मुझे लगा, वह आराम करना चाहता है. उसने आरम्भ किया, ‘‘मैंने तो बहुच-बहुत सोचा कि ईस्थेटिक एक्सपीरिएन्स क्या है. आज मैंने इसी सम्बन्ध में कुछ लिखा है. तुम्हें सुनाने आया हूँ.’’
भीतर दिल में मेरी नानी मर गयी. मैं खुद कविताएँ सुनाने की ख्वाहिश रखता था. अब यह केशव अपनी सुनाने बैठेगा. मेरी सारी दुपहर खराब हो जायेगी. शीः.
मैंने प्रस्ताव रखा, ‘‘अपने उस विषय की बात ही क्यों न कर लें.’’
‘‘ज़रूर; लेकिन तुम्हें डिसिप्लिन से बात करनी होगी.’’ यह कहकर वह मुस्करा दिया !!

यह मुस्कराहट मुझे चुभ गयी. तो क्या मैं इतना पागल हूँ कि बात करने में भटक जाता हूँ! इस साले ने बहुत ध्यानपूर्वक मेरे स्वाभाव का अध्ययन किया होगा. शायद मैं इसे बहुत ‘बोर’ करता रहा हूँगा. अपने स्वभाव के अध्ययन के इतने अधिक और इतने प्रदीर्घ अवसर किसी को देना शायद उचित नहीं था. मैं तो उल्लू सरीखा बोलता जाता हूँ और ये हजरत अपने दिमाग की नोटबुक में मेरी हर गलती टीप लेते हैं!
मैंने विश्वास दिलाने की जबरजस्त चेष्टा की और कुचेष्टा करते हुए ‘‘बात बिलकुल ढंग से ही होगी.’’
उसने कहा, ‘‘मैंने तुम्हें बताया था कि ‘निज’ और ‘पर’ ‘स्व-पक्ष’ और ‘वस्तु-पक्ष’ दोनों जब एक हो जाते हैं तब तादातम्य उत्पन्न होता है!’’

उसके भावों की गम्भीरता कुछ ऐसी थी, चेहरा उसने इतना सीरियस बना रखा था कि मुझे अपनी हँसी दबा देनी पड़ी. पहली बात तो यह है कि मुझे उसकी शब्दावली अच्छी नहीं लगी. यह तो मैं जनता हूँ कि सारे दर्शन का मूल आधार सब्जेक्ट-ऑब्जेक्ट रिलेशनशिप की कल्पना है-स्व-पक्ष और वस्तु-पक्ष की परिकल्पनाएँ और उन दो पक्षों के परस्पर सम्बन्ध की कल्पना के आधार पर ही दर्शन खड़ा होता है. अथवा यूँ कहिए की ज्ञान-मीमांसा खड़ी होती है. एपिस्टॅमॉलॉजी अर्थात् ज्ञान-मीमांसा की बुनियाद पर ही परिकल्पनाओं के प्रसाद की रचना की गयी है. इस दृष्टि से देखा जाये तो मुझे वाक्य पर हँसने की जरूरत नहीं थी. मैं उसकी स्थापना को विवाद्य मान सकता हूँ, हास्यास्पद नहीं.
फिर भी मैं हँस पड़ा-इसलिए कि मुझे उसके शब्दों में, उसके स्वयं के विचित्र व्यक्तित्व की झलक दिखलाई दी. वही बोझिल, गतिहीन, ठण्डा, पाषाणवत् व्यक्तित्व!!
उसकी भौहें कुछ आकुंचित हुईं. फीका, पीला चेहरा, किंचित् विस्मय से मेरी ओर वही ठण्डी दृष्टि डालने लगा-मानो वह मेरे रुख का अध्ययन करना चाहता हो.
मैंने कहा, ‘‘भाई मुझे तादात्म्य और तदाकारिता की बात समझ में नहीं आयी. सच तो यह है कि किसी वस्तु में तदाकार नहीं हो पाता. तदाकारिता की बात का मैं खण्डन नहीं करता, किन्तु मैं उसको एक मान्यता के रूप में ग्रहण नहीं करना चाहता.’’
उसने कहा, ‘‘क्यों?’’
मैंने जवाब दिया, ‘‘एक तो मैं वस्तु-पक्ष का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझता. हिन्दी में मन से बाह्य वस्तु को ही वस्तु समझा जाता है-मेरा खयाल है. मैं कहता हूँ कि मन का तत्त्व भी वस्तु हो सकता है. और अगर यह मान लिया जाये कि मन का तत्त्व भी एक वस्तु है तो ऐसे तत्त्व के साथ तदाकारिता या तादातम्य का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि वह तत्त्व मन ही का एक भाग है, हाँ, मैं इस मन के तत्त्व के साथ तटस्थता का रुख की कल्पना कर सकता हूँ; तदाकारिता नहीं.’’
मेरे स्वर और शब्द की हल्की धीमी गति ने उसे विश्वास दिला दिया कि मैं उसकी बात उड़ाने के लिए नहीं कह रहा हूँ, वरन् उसकी बातें समझने में महसूस होनेवाली कठिनाई का बयान कर रहा हूँ.
आखिकार वह मेरा मित्र था, बुद्धिमान और कुशाग्र था. उसने मेरी ओर देखकर किंचित् स्मित किया और कहने लगा, ‘‘तुम एक लेखक की हैसियत से बोल रहे हो इसलिए ऐसा कहते हो. किन्तु सभी लोग लेखक नहीं हैं. दर्शक हैं, पाठक हैं, श्रोता हैं. वे हैं, इसलिए तुम भी हो-यह नहीं कि तुम हो इसलिए वे हैं!! वे तुम्हारे लिए नहीं हैं, तुम उनके सम्बन्ध से हो. पाठक या श्रोता तादात्म्य या तन्मयता से बातें शुरू करें तो तुम्हें आश्चर्य नहीं होना चाहिए.’’
मेरे मुँह से निकला, ‘‘तो ?’’
उसने जारी रखा, ‘‘तो यह कि लेखक की हैसियत से, सृजन-प्रक्रिया के विश्लेषण के रास्ते से होते हुए सौन्दर्य-मीमांसा करोगे या पाठक अथवा दर्शक की हैसियत से, कालानुभव के मार्ग से गुजरते हुए सौन्दर्य की व्यख्या करोगे ? इस सवाल का जवाब दो!’’
मैं उसकी चपेट में आ गया. मैं कह सकता था कि दोनों करूँगा. लेकिन मैंने ईमानदारी बरतना उचित समझा. मैंने कहा, ‘‘मैं तो लेखक की हैसियत से ही सौन्दर्य की व्याख्या करना चाहूँगा. इसलिए नहीं कि मैं लेखक को कोई बहुत ऊँचा स्थान देना चाहता हूँ वरन् इसलिए कि मैं वहाँ अपने अनुभव की चट्टान पर खड़ा हुआ हूँ.’’
उसने भौहों को सिकोड़कर और फिर ढीला करते हुए जवाब दिया, ‘‘बहुत ठीक; लेकिन जो लोग लेखक नहीं हैं वे तो अपने ही अनुभव के दृढ़ आधार पर खड़े रहेंगे और उसी बुनियाद पर बात करेंगे. इसलिए उनके बारे में नाक-भौं सिकोड़ने की जरूरत नहीं. उन्हें नीचा देखना तो और भी गलत है.’’

उसने कहना जारी रखा, ‘‘इस बात पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि आप किस सिरे से बात शुरू करेंगे! यदि पाठक श्रोता या दर्शक के सिरे से बात शुरू करेंगे तो आपकी विचार-यात्रा दूसरे ढंग की होगी. यदि लेखक सिरे से सोचना शुरू करेंगे तो बात अलग प्रकार की होगी. दोनों सिरे से बात होगी सौन्दर्य-मीमांसा की है. किन्तु यात्रा की भिन्नता के कारण अलग-अलग रास्तों का प्रभाव विचारों को भिन्न बना देगा.
दो यात्राओं की परस्पर भिन्नता, अनिवार्य रूप से, परस्पर-विरोधी ही है-यह सोचना निराधार है. भिन्नता पूरक हो सकती है, विरोधी भी.
यदि हम यथा तथ्य बात भी करें तो भी बल (एम्फैसिस) की भिन्नता के कारण विश्लेषण भी भिन्न हो जायेगा.
किन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रश्न किस प्रकार उपस्थित किया जाता है. प्रश्न तो आपकी विचार-यात्रा होगी. यदि इस विचार-यात्रा को रेगिस्तान में विचरण का पर्याय नहीं बनाना है तो प्रश्न को सही ढंग से प्रस्तुत करना होगा. यदि वह गलत ढंग से उपस्थित किया गया तो अगली सारी यात्रा गलत हो जायेगी.’’

उसने मेरी तरफ ध्यान से देखा. शायद वह देखना चाहता था कि मैं उसकी बात गम्भीरता पूर्वक सुन रहा हूँ या नहीं. शायद उसका यह विश्वास था कि मैं अत्यधिक इम्पल्सिव, सहज-उत्तेजित हो उठने वाला एक बेचैन आदमी की तरह हूँ. किन्तु मैं शान्त था. मेरे मन की केवल एक ही प्रतिक्रिया थ और वह यह कि केशव यह समझता है कि मैं समस्या को ठीक तरह से प्रस्तुत करना नहीं जानता. असल में उसकी यह धारणा मुझे बहुत अप्रिय लगी. मैं उसकी इस धारणा को बहुत पहले से जानता था. वह काई बार दुहरा भी चुका था. असल में वह बौद्धिक क्षेत्र में अपने को मुझसे उच्चतर समझता था. उसका ठण्डापन, उस के फलस्वरूप हम दो के बीच की दूरी, दूरी का सतत मान, और इस मान के बावजूद हम दोनों का नैकट्य-परस्पर घनिष्ठता और इसके विपरीत, दूरी के उस मान के कारण मेरे मन में केशव के विरुद्ध एक झख मारती खीझ और चिड़चिड़ापन—इन सब बातों से मेरे अन्तःकरण में, केशव से मेरे सम्बन्धों की भावना विषम हो गयी थी. सूत्र उलझ गये थे. मैं केसव को न तो पूर्णतः स्वीकृत कर सकता था न उसे अपनी जिन्दगी से हटा सकता था. इस प्रकार की मेरी स्थिति थी. फिर भी चूँकि ऐसी स्थित बहुत पहले से चली आयी थी इसलिए मुझे उसकी आदत पड़ गयी थी. किन्तु इस अभ्यस्तता के बावजूद कई बार में विक्षोभ फूट पड़ता और तब केशव की आँखों में एक चालाक रोशनी दिखाई देती, और मुझे सन्देह होता कि वह मेरी तरफ देखकर मुस्कराता हुआ कोई गहरी चोट कर रहा है. उस समय उसके विरुद्ध मेरे हृदय में घृणा का फोड़ा फूट पड़ता !!

किसी न किसी तरह मैं अपने को सामंजस्य और मानसिक सन्तुलन की समाधि में लिया; यह बताने के लिए मैं उसकी बातें ध्यानपूर्वक सुन रहा हूँ. मैंने उसके तर्कों और युक्तियों के प्रवाह में डूबकर मर जाना ही श्रेयस्कर समझा क्योंकि इस रवैये से या रुख से मेरे आत्मगौरव की रक्षा हो सकती थी. इस बीच मेरा मन दूर-दूर भटकने लगा. बाहर से शायद मैं धीर-प्रशान्त लग रहा था.

---------------गजानन माधव मुक्तिबोध, एक साहित्यिक की डायरी से साभार
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Sunday, June 1, 2008

एक नज़र

कबीर









ऐसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ ।
अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ ॥1॥

आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक ।
कह `कबीर' नहिं उलटिए, वही एक की एक ॥2॥

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान ॥3॥

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागूं पायं ।
बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दिया दिखाय ॥4॥
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