कोमल और कमजोर स्त्रीत्व की उसकी चाह कभी नहीं रही,
उसने अपने जन्मदिवस पर ढेर फूल नहीं चाहे,
राजसी ऐशो आराम और भड़कीली गाडियों की चाहत नहीं की।
स्त्री मुक्ति का अर्थ वह बच्चे से अलग होना वहीं मानती,
स्त्री मुक्ति का अर्थ उसके लिये घर से बिखराव नहीं है,
स्त्री मुक्ति उसके लिये गुलाम और परेशान पिता से विद्रोह भी नहीं है।
वह तो अपने लोगों की छोटी से छोटी आवश्यक्ताएं पूरी करती रही,
उनके लिये वह बार-बार अपमानित भी हुई, लेकिन उसने बुरा नहीं माना,
हां,आततायी के सामने उसने आंसू बहाने से इंकार कर दिया ।
अब न्याय की लंबी लडाई में मारे गए निर्दोषों पर भी वह नहीं रोती।
उसकी केवल एक चाह है स्वतंत्रता
उसकी केवल एक चाह है-
मशाल बराबर जलती रहे।
भ्रष्ट्र और अनैतिक अल्पमत के अत्याचारों के समक्ष,
वह विद्रोहिणी निर्भीक खड़ी है,
ओढाई गई कृत्रिम भीरुता को उसने जीत लिया है
वह एक बडी लड़ाई को प्रतिश्रुत है।
वह सुंदर लग रही है,
उसके सौंदर्य को अब तक के प्रतिमानों से नहीं नापा जा सकता,
उसका मानदंड मानवता के प्रति उसका समर्पण है।
ग्लेरिया म्तुंगवा की एक कविता
(इस कविता का अनुवाद अर्चना त्रिपाठी ने किया है। )
पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लाग से पूछे बगैर साभार
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उसने अपने जन्मदिवस पर ढेर फूल नहीं चाहे,
राजसी ऐशो आराम और भड़कीली गाडियों की चाहत नहीं की।
स्त्री मुक्ति का अर्थ वह बच्चे से अलग होना वहीं मानती,
स्त्री मुक्ति का अर्थ उसके लिये घर से बिखराव नहीं है,
स्त्री मुक्ति उसके लिये गुलाम और परेशान पिता से विद्रोह भी नहीं है।
वह तो अपने लोगों की छोटी से छोटी आवश्यक्ताएं पूरी करती रही,
उनके लिये वह बार-बार अपमानित भी हुई, लेकिन उसने बुरा नहीं माना,
हां,आततायी के सामने उसने आंसू बहाने से इंकार कर दिया ।
अब न्याय की लंबी लडाई में मारे गए निर्दोषों पर भी वह नहीं रोती।
उसकी केवल एक चाह है स्वतंत्रता
उसकी केवल एक चाह है-
मशाल बराबर जलती रहे।
भ्रष्ट्र और अनैतिक अल्पमत के अत्याचारों के समक्ष,
वह विद्रोहिणी निर्भीक खड़ी है,
ओढाई गई कृत्रिम भीरुता को उसने जीत लिया है
वह एक बडी लड़ाई को प्रतिश्रुत है।
वह सुंदर लग रही है,
उसके सौंदर्य को अब तक के प्रतिमानों से नहीं नापा जा सकता,
उसका मानदंड मानवता के प्रति उसका समर्पण है।
ग्लेरिया म्तुंगवा की एक कविता
(इस कविता का अनुवाद अर्चना त्रिपाठी ने किया है। )
पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लाग से पूछे बगैर साभार