ऐसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ ।
अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ ॥1॥
आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक ।
कह `कबीर' नहिं उलटिए, वही एक की एक ॥2॥
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान ॥3॥
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागूं पायं ।
बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दिया दिखाय ॥4॥
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