Saturday, June 28, 2008
साहित्येतिहास में स्त्री
...इससे पहले कि हम खुद ब्रह्मराक्षस बन जायें
हमें इतिहास की अपनी परिभाषा को
ब्रह्मराक्षसों की कैद से आज़ाद कराना होगा.
हमें उन तटों पर पहुँचना होगा
जहाँ यह अजस्र धारा बह रही है.
चलो इसमें एक बूँद बनकर बहें
ताकि हमारा रास्ता
कल इतिहास के सफ़ों पर
सुन्दर सुरीले छंद बन अंकित हो.
...इससे पहले कि
इस सदी की किताब बंद हो
ऐसा कुछ करें कि
हमारे हिस्से के सफ़े
कोरे ही न छूट जायें.
_____________________कात्यायनी, दुर्ग द्वार पर दस्तक से साभार
Posted by
भास्कर रौशन
at
5:58 PM
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