
"ओ मेरे आदर्शवादी मन,ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,अब तक क्या किया?जीवन क्या जिया!!उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,असंग बुद्धि व अकेले में सहना,ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,अब तक क्या किया,जीवन क्या जिया!!बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,बन गये पत्थर,बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,दिया बहुत-बहुत कम,मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल ...