Wednesday, June 18, 2008
आदमी की पूँछ (व्यंग्य)
आज के बंदर भले न मानें, मगर आज का आदमी जरूर मानता है कि आदमी बंदर की औलाद है. चिंपाजी की प्रागैतिहासिक नानी हमारी भी नानी थी. पहले हम भी चिंपाजी की तरह पेड़ पर रहते थे और जमीन पर आने से घबराते थे. यह अलग बात है कि चिंपाजी जो था, वही बना रहा. हम जो थे, वह नहीं रहे. और तो और हम ने अपनी ऐतिहासिक पूँछ तक त्याग दी.
मान लो, आज जो हम हैं, वह रहते, लेकिन साथ ही हमारी पूँछ भी रहती. यानी हम पूँछवान मनुष्य होते, तो क्या होता!
एक संभावना यह थी कि हम पूँछ को शरीर का एक फालतू अंग मानकर कटवा डालते. लेकिन क्या हम सचमुच ऐसा करते? क्या अपने शरीर के किसी अंग को कटवा डालना आसान होता है. नहीं होता, तो इसका मतलब यह है कि हनुमानजी की तरह हमारी भी पूँछ होती. यह फालतू सी चीज हमेशा पीछे लटकी रहती, तो क्या हम अपने को अपनी ही नजर में हास्यास्पद लगते? क्या जिंदगी भर, पीढ़ी-दर- पीढ़ी हम इस हास्यास्पदता को ढो पाते?
दूसरी संभावना यह है कि अगर गाय, भैंस, कुत्ता, गधा और खुद बंदर अपनी पूँछ के कारण हमें हास्यास्पद नहीं लगता है तो हम अपनी ही नजर में खुद को हास्यास्पद क्यों लगते?
तो एक समस्या तो हल हो गई कि न हम अपनी पूँछ कटवाते, न खुद को हास्यास्पद लगते. मगर अब सवाल सामने यह आता है कि हम अपनी पूँछ का क्या करते? सिर से पैर तक हमारे शरीर का हर अंग काम का है. पूँछ भी शायद किसी न किसी तरह जरूरी होती. गुस्से में हम उसे जमीन पर फटकारते. शायद मक्खी-मच्छर से अपने को बचाने के लिए गाय भैंस की तरह हम भी अपनी पूँछ का इस्तेमाल करते. मालिक को खुश करने के लिए उसके सामने कुत्ते की तरह हम भी दुम हिलाते. शायद पाँच दस किलो का वजन उठाने के लिए हम पूँछ का इस्तेमाल करते.
अगर कोई बिन पूँछ का हमें दिखता, तो हम उसे विकलांग मानते. बच्चों के हाथ-पैर तोड़कर उन्हें विकलांग बनाकर भीख मँगवाने वाले, तब शायद बच्चों की पूँछ भी काट डालते.
लेकिन पूँछ का बड़ा होना श्रेष्ठता का प्रतीक माना जाता या छोटा होना? छोटी पूँछ इसलिए श्रेष्ठ मानी जा सकती थी वह जमीन पर नहीं घिसटती. लेकिन छोटा कद, छोटी नाक, छोटी आँख, छोटे हाथ वगैरह को सौंदर्य का प्रतीक तो नहीं माना जाता. इसलिए संभव था कि लंबी पूँछ मनुष्य के सौंदर्य उपमानों में से एक मानी जाती। और सब तो ठीक है लेकिन लड़की की पूँछ छोटी है’, और सब तो ठीक है लेकिन लड़के की पूँछ टेढ़ी है’ जैसी टिप्पणियाँ होतीं.
एक सवाल यह भी है कि आदमी अपनी पूँछ उठाकर चलता या गिराकर चलता या सीधी रखकर चलता? पूँछ उठाकर चलता, तो वह शर्ट पैंट या साड़ी ब्लाउज के बाहर होती या अंदर? और अगर पूँछ शर्ट-पैंट या साड़ी- ब्लाउज के बाहर होती, तो क्या उसे ठंड, गरमी, बरसात से बचाने के लिए कपड़े से ढँका जाता?
तब पूँछ ढँकने की भी डेस होती और उसके ड्रेस डिजाइनर होते. फैशन हमेशा बदलते रहते. गरमी में पुरुष अपनी पूँछ आधी या पूरी खुली रखते, मगर औरतों को अपनी पूँछ ढँकनी पड़ती. केवल शहरी आधुनिकाएँ ही अपनी पूँछ को अधनंगा रखतीं और बुढ़ऊ कहते कि देखा-देखा, आजकल की लड़कियाँ कितनी बेशरम हैं, अपनी पूँछ दिखाती रहती हैं. लड़के टेढ़ी या सीधी नजरों से लड़कियों की पूँछ को देखते और कहते, यार क्या बला की पूँछ है. हाय! हम तो मर गए.’’
पूँछ के बालों के बारे में तो हमने सोचा ही नहीं. पूँछ के बाल धोए जाते और उनमें कंघी की जाती. तब ब्यूटी पार्लवाले पूँछ के बालों को ‘सुन्दर’ बनाने के भी उपाय करते. उधर नाइयों को भी काम मिलता. हो सकता है कुछ पुरुष दाढ़ी-मूँछ की तरह पूँछ के बाल भी शेव कराते. कुछ इन बालों को बड़ा रखते. लड़कियाँ हो सकता है, इन बालों में रिबन बाँधतीं, रबड़ लगातीं या क्लिप लगातीं. पूँछ के बालों को नरम, मुलायम और स्वस्थ रखने के लिए हो सकता है कुछ साबुन शैंपू और क्रीमें होतीं.
बहुत कुछ होता, गर पूँछ होती. तब आँख, दाँत कान विशेषज्ञ की तरह शायद पूँछ विशेषज्ञ भी होते. लोग पूँछ में दर्द की शिकायत लेकर डॉक्टर के पास जाते. डॉक्टर पूछता कि पूँछ को ऊँचा रखने से दर्द होता है या नीचा रखने से. पूँछ को फटकारने से दर्द होता है या हिलाने से. वह दवा के साथ-साथ पूँछ के तरह- तरह के व्यायाम भी बताता. मालिश के लिए तेल या लोशन बताता. पूँछ के बारे में कुछ नए मुहावरे भी बनते. हो सकता है, तब लोग पूँछ का सवाल बनाने की बजाए पूँछ का सवाल बनाते. व्यवस्था को लूँली-लँगड़ी के साथ ही लोग पूँछ कटी भी बताते. किसी को गरियाने के लिए लोग तब कहते कि साले को पूँछ हिलाना तो आता नहीं है, नेतागिरी करने चला है.
और भी अनंत संभावनाएँ हैं. हिंदुओं में शादी के समय वर-वधू की गाँठ बाँधने की बजाए पूँछ बाँछने की परंपरा होती. हो सकता है, आदमी को पूँछ होती तो उसे कुर्सी की जरूरत न पड़ती. जमीन पर दो पैर रखे, पूँछ गोल-गोल मोड़कर रखी और बैठ गए.
हो सकता है, हम भारतीय अपनी पूँछों के बल पर गर्व करते और सबसे बड़ी बात, सिर्फ हनुमान की ही नहीं राम-लक्ष्मण-सीता, कृष्ण-राधा वगैरह की जितनी तसवीरें और मूर्तियाँ मिलतीं, सब में उनकी पूँछ होती.
_____________________विष्णु नागर, राष्ट्रीय नाक से साभार
Posted by
भास्कर रौशन
at
1:54 PM
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