Sunday, June 15, 2008
संस्कृति (लघुकथा)
भूखा आदमी सड़क किनारे कराह रहा था. एक दयालु आदमी रोटी लेकर उसके पास पहँचा और उसे दे ही रहा था कि एक-दूसरे आदमी ने उसका हाथ खींच लिया. वह आदमी बड़ा रंगीन था.
पहले आदमी ने पूछा, "क्यों भाई, भूखे को भोजन क्यों नहीं देने देते?"
रंगीन आदमी बोला, "ठहरो, तुम इस प्रकार उसका हित नहीं कर सकते. तुम केवल उसके तन की भूख समझ पाते हो, मैं उसकी आत्मा की भूख जानता हूँ. देखते नहीं हो, मनुष्य-शरीर में पेट नीचे है और हृदय के ऊपर. हृदय की अधिक महत्ता है."
पहला आदमी बोला, "लेकिन उसका हृदय पेट पर ही टिका हुआ है. अगर पेट में भोजन नहीं गया तो हृदय की टिक-टिक बंद नहीं हो जायेगी!"
रंगीन आदमी हँसा, फिर बोला, "देखो, मैं बतलाता हूँ कि उसकी भूख कैसे बुझेगी!"
यह कहकर वह उस भूखे के सामने बाँसुरी बजाने लगा. दूसरे ने पूछा, "यह तुम क्या कर रहे हो, इससे क्या होगा?"
रंगीन आदमी बोला, "मैं उसे संस्कृति का राग सुना रहा हूँ. तुम्हारी रोटी से तो एक दिन के लिए ही उसकी भूख भागेगी, संस्कृति के राम से उसकी जनम-जनम की भूख भागेगी."
वह फिर बाँसूरी बजाने लगा.
और तब वह भूखा उठा और बाँसूरी झपटकर पास की नाली में फेंक दी.
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हरिशंकर परसाई कृत साभार
Posted by
भास्कर रौशन
at
9:49 PM
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