रक्त से भरा तसला हैरिसता हुआ घर के कोने-अंतरों मेंहम हैं सूजे हुए पपोटेप्यार किए जाने की अभिलाषासब्जी काटते हुए भीपार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुईप्रेतात्माएँहम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैंदरवाज़ा खोलते हीअपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल परपैदा होने वाला बेधक अपमान हैंहम हैं इच्छा-मृगवंचित स्वप्नों की चरागाह में तोचौकड़ियाँमार लेने दो हमें कमबख्तो !-----------------------वीरेन डंगवाल कृत सा ...
Sunday, June 29, 2008
Saturday, June 28, 2008
साहित्येतिहास में स्त्री

...इससे पहले कि हम खुद ब्रह्मराक्षस बन जायेंहमें इतिहास की अपनी परिभाषा कोब्रह्मराक्षसों की कैद से आज़ाद कराना होगा.हमें उन तटों पर पहुँचना होगाजहाँ यह अजस्र धारा बह रही है.चलो इसमें एक बूँद बनकर बहेंताकि हमारा रास्ताकल इतिहास के सफ़ों परसुन्दर सुरीले छंद बन अंकित हो....इससे पहले किइस सदी की किताब बंद होऐसा कुछ करें किहमारे हिस्से के सफ़ेकोरे ही न छूट जायें._____________________कात्यायनी, दुर्ग द्वार पर दस्तक से सा ...
Wednesday, June 25, 2008
आखिरी मंजिल ( कहानी )

आह? आज तीन साल गुजर गए, यही मकान है, यही बाग है, यही गंगा का किनारा, यही संगमरमर का हौज। यही मैं हूँ और यही दरोदीवार. मगर इन चीजों से दिल पर कोई असर नहीं होता. वह नशा जो गंगा की सुहानी और हवा के दिलकश झौंकों से दिल पर छा जाता था. उस नशे के लिए अब जी तरस-जरस के रह जाता है. अब वह दिल नही रहा. वह युवती जो जिंदगी का सहारा थी अब इस दुनिया में नहीं है. मोहिनी ने बड़ा आकर्षक रूप पाया था. उसके सौंदर्य में एक आश्चर्यजनक बात थी. उसे प्यार करना मुश्किल था, वह पूजने के योग्य थी. उसके चेहरे पर हमेशा एक बड़ी लुभावनी आत्मिकता की दीप्ति रहती थी. उसकी आंखे जिनमें ...
Wednesday, June 18, 2008
आदमी की पूँछ (व्यंग्य)
आज के बंदर भले न मानें, मगर आज का आदमी जरूर मानता है कि आदमी बंदर की औलाद है. चिंपाजी की प्रागैतिहासिक नानी हमारी भी नानी थी. पहले हम भी चिंपाजी की तरह पेड़ पर रहते थे और जमीन पर आने से घबराते थे. यह अलग बात है कि चिंपाजी जो था, वही बना रहा. हम जो थे, वह नहीं रहे. और तो और हम ने अपनी ऐतिहासिक पूँछ तक त्याग दी. मान लो, आज जो हम हैं, वह रहते, लेकिन साथ ही हमारी पूँछ भी रहती. यानी हम पूँछवान मनुष्य होते, तो क्या होता!एक संभावना यह थी कि हम पूँछ को शरीर का एक फालतू अंग मानकर कटवा डालते. लेकिन क्या हम सचमुच ऐसा करते? क्या अपने शरीर के किसी अंग को कटवा ...
Sunday, June 15, 2008
संस्कृति (लघुकथा)

भूखा आदमी सड़क किनारे कराह रहा था. एक दयालु आदमी रोटी लेकर उसके पास पहँचा और उसे दे ही रहा था कि एक-दूसरे आदमी ने उसका हाथ खींच लिया. वह आदमी बड़ा रंगीन था. पहले आदमी ने पूछा, "क्यों भाई, भूखे को भोजन क्यों नहीं देने देते?" रंगीन आदमी बोला, "ठहरो, तुम इस प्रकार उसका हित नहीं कर सकते. तुम केवल उसके तन की भूख समझ पाते हो, मैं उसकी आत्मा की भूख जानता हूँ. देखते नहीं हो, मनुष्य-शरीर में पेट नीचे है और हृदय के ऊपर. हृदय की अधिक महत्ता है." पहला आदमी बोला, "लेकिन उसका हृदय पेट पर ही टिका हुआ है. अगर पेट में भोजन नहीं गया तो हृदय की टिक-टिक ...
रजनी-दिन नित्य चला ही किया

गुरुवर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अनेक विधाओं में रचना की है. उनका कवि रूप अपेक्षाकृत अल्पज्ञात है. उनकी कोई कविता किसी पत्रिका में प्रकाशित मैंने नहीं देखी है. ‘कवि’ (संपादक:विष्णुचंद्र शर्मा) में उन्होंने भवानीप्रसाद मिश्र की कविताओं पर अपने विचार कविता के रूप में प्रकट किये थे. वह कविता में लिखी हुई आलोचना है. हलके मूड में कभी-कभी वे अपनी कविताएँ सुनाते थे. उनके शिष्यों ने भी उनकी कविताओं को गंभीरता से नहीं लिया. डॉ. नामवर सिंह ने ‘आलोचना’ का संपादन शुरू किया तो द्विवेदी जी उनसे मज़ाक में कहते-‘‘मैंने भी कविताएँ लिखी हैं. मुझसे क्यों नहीं ...
Friday, June 13, 2008
टूटी हुई बिखरी हुई
सआदत हसन मंटो का अफ़साना नंगी आवाजेंमंटो की कहानियाँ मेहनतकश जनता के मनोजगत का दस्तावेज़ भी हैं. सुनिये नंगी आवाज़ें और महसूस कीजिये उस मानवीय करुणा का ताप, जिसे बाहर रहकर पेश कर पाना बडे जिगरे का काम है.(यहां क्लीक कर ...
Tuesday, June 10, 2008
ज़िल्लत की रोटी

इन दिनों अक्सर यह लगता है कि हम किसी महानाटक के बीचों-बीच उलझे हुए हैं. हालाँकि यह पता करना आसान नहीं कि इसे कब और कितना हम बाहर होकर देख रहे हैं और कब अपना आपा खोकर इसमें इसी के एक किरदार की तरह शरीक हो गए हैं. इस नए रंगमंच पर मुफ़्तखोर लम्पट पूँजी के कुटिल खेलों ने लगभग एक विराट बम्बइया फिल्म की शक़्ल अख़्तियार कर ली है. पिछले दिनों अन्तर्राष्टीय और राष्टीय पैमाने के कितने ही हत्या- अनुष्ठानों और फासीवादी पूर्वाभ्यासों को हमने दूरदर्शन के ‘सोप ऑपेरा’ की तरह कमरों में बैठकर देखा है. नई दुनिया के ज़िद्दी और मग़रूर शहंशाह अपना निरंकुश बुलडोज़र लेकर ...
Saturday, June 7, 2008
तीसरा क्षण

आज से कोई बीस साल पहले की बात है. मेरा एक मित्र केशव और मैं दोनों जंगल-जंगल घूमने जाया करते. पहाड़-पहाड़ चढ़ा करते, नदी-नदी पार किया करते. केशव मेरे-जैसा ही पन्द्रह वर्ष का बालक था. किन्तु वह मुझे बहुत ही रहस्यपूर्ण मालूम होता. उसका रहस्य बड़ा ही अजीब था. उस रहस्य से मैं भीतर ही भीतर बहुत आतंकित रहता. केशव ने ही बहुत-बहुत पहले मुझे बताया कि इड़ा, पिगंला और सुषुम्ना किसे कहते हैं. कुण्डलिनी चक्र से मुझे बड़ा डर लगता. उसने हठयोगियों की बहुत-सी बातें बड़े ही विस्तार के साथ वर्णन कीं. केशव का सिर पीछे से बहुत बड़ा था. आगे की ओर लम्बा और विस्तृत ...
Sunday, June 1, 2008
एक नज़र

कबीरऐसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ ।अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ ॥1॥आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक ।कह `कबीर' नहिं उलटिए, वही एक की एक ॥2॥यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।सीस दिये जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान ॥3॥गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागूं पायं ।बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दिया दिखाय ...