Tuesday, May 20, 2008
हाशिए पर
"तुम हमारा ज़िक्र इतिहासों में
नहीं पाओगे
और न उस कराह का
जो तुमने उस रात सुनी
क्योंकि हमने अपने को
इतिहास के विरूद्ध दे दिया है
लेकिन जहाँ तुम्हें इतिहास में
छूटी हुई जगह दिखे
और दबी हुई चीख का अहसास हो
समझना हम वहाँ मौजूद थे."
( विजयदेव नारायण साही ने यह कविता ह्रदयेश की किताब इतिहास के मुख्य पृष्ट पर दी है. )
Posted by
भास्कर रौशन
at
11:05 AM
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2 comments
सुन्दर अभिव्यक्ति।
मर्म को छू जाने वाले एहसास ...
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