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सिविल सेवा परीक्षा संबंधी

भारतेन्दु हरिश्चंद

1.सब गुरूजन को बुरो बतावै
अपनी खिचड़ी अलग पकावै,
भीतर तत्व न झूठी तेजी
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी.
2.
तीन बुलाए तेरह आवै
निज निज बिपता रोई सुनावै,
आँखौ फूटे भरा न पेट
क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रैजुएट.
3.
सुंदर बानी कहि समुझावै
बिधवागन सों नेह बढ़ावै,
दयानिधान परम गुन-सागर
सखि सज्जन नहिं विद्यासागर.
4.
सीटी देकर पास बुलावै
रूपया ले तो निकट बिठावै,
ले भागै मोहि खेलहि खेल
क्यों सखि सज्ज्न नहिं सखि रेल.
5.
धन लेकर कुछ काम न आव
ऊँची नीची राह दिखाव,
समय पड़ै पर सीधै गुंगी
क्यों सखि सज्ज्न नहिं सखि चुंगी.
6.
रूप दिखावत सरबस लूटै
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै,
कपट कटारी जिय मैं हुलिस
क्यों सखि सज्ज्न नहिं सखि पुलिस.
7.
भीतर भीतर सब रस चूसै
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै,
जाहिर बातन मैं अति तेज
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेज.
8.
एक गरभ मैं सौ सौ पूत
जनमावै ऐसा मजबूत,
करै खटाखट काम सयाना
सखि सज्जन नहिं छापाखाना.
9.
नई नई नित तान सुनावै
अपने जाल में जगत फँसावै,
नित नित हमैं करै बल-सून
क्यों सखि सज्जन नहिं कानून.
10.
इनकी उनकी खिदमत करो
रूपया देते देते मरो,
तब आवै मोहिं करन खराब
क्यों सखि सज्जन नहिं खिताब.
11.
मूँह जब लागै तब नहिं छूटै
जाति मान धन सब कुछ लूटै,
पागल करि मोहिं करै खराब
क्यों सखि सज्जन नहिं सराब.

तमस Online

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Sunday, July 27, 2008

करुण रसाल हृदय के स्वर


"ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!

उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!

बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर,
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!
लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य--त्याग दिये,
हृदय के मन्तव्य--मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए, फँस गये,
अपने ही कीचड़ में धँस गये!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गये!

अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम..."


___________ मुक्तिबोध, अंधेरे में का महत्त्वपूर्ण अंश
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Thursday, July 24, 2008

उसने कहा था


बड़े-बडे़ शहरों के इक्के-गाडी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगावे. जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़को पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन-संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त गुह्य अंगो से डाक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखो के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरो की अंगुलियों के पोरों की चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार भर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों मे हर एक लडढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर-- बचो खालसाजी, हटो भाईज', ठहरना भाई, आने दो लालाजी, हटो बाछा कहते हुए सफेद फेटों , खच्चरों और बतको, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल से राह खेते हैं. क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े. यह बात नही कि उनकी जीभ चलती ही नही, चलती है पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई. यदि कोई बुढ़िया बार-बार चिटौनी देने पर भी लीक से नही हटती तो उनकी वचनावली के ये नमूने हैं-- हट जा जीणे जोगिए, हट जा करमाँ वालिए, हट जा, पुत्तां प्यारिए. बच जा लम्बी वालिए. समष्टि मे इसका अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रो को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियो के नीचे आना चाहती है? बच जा। ऐसे बम्बू कार्ट वालों के बीच मे होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की दुकान पर आ मिले. उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पडता था कि दोनो सिख हैं. वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियाँ. दुकानदार एक परदेशी से गुथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ो की गड्डी गिने बिना हटता न था.
-- तेरा घर कहाँ है?
-- मगरे मे. ...और तेरा?
-- माँझे मे, यहाँ कहाँ रहती है?
-- अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं.
-- मैं भी मामा के आया हूँ, उनका घर गुरु बाजार मे है.
इतने मे दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा. सौदा लेकर दोनो साथ-साथ चले. कुछ दूर जाकर लड़के ने मुसकरा कर पूछा-- तेरी कुड़माई हो गई? इस पर लड़की कुछ आँखे चढ़ाकर 'धत्' कहकर दौड़ गई और लड़का मुँह देखता रह गया.
दूसरे तीसरे दिन सब्जी वाले के यहाँ, या दूध वाले के यहाँ अकस्मात् दोनो मिल जाते. महीना भर यही हाल रहा. दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा-- तेरे कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही 'धत्' मिला. एक दिन जब फिर लड़के ने वैसी ही हँसी मे चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली-- हाँ, हो गई.
-- कब?
-- कल, देखते नही यह रेशम से कढा हुआ सालू. ... लड़की भाग गई.
लड़के ने घर की सीध ली. रास्ते मे एक लड़के को मोरी मे ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले मे दूध उंडेल दिया. सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई. तब कहीं घर पहुँचा.

-- होश मे आओ. कयामत आयी है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आयी है.
-- क्या? -- लपचन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गये हैं. उनकी वर्दी पहन कर कोई जर्मन आया है. सूबेदार ने इसका मुँह नही देखा. मैने देखा है, और बातें की हैं. सौहरा साफ़ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू. और मुझे पीने को सिगरेट दिया है.
-- तो अब? -- अब मारे गए. धोखा है. सूबेदार कीचड़ मे चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा उधर उन पर खुले मे धावा होगा. उठो, एक काम करो. पलटन मे पैरो के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ. अभी बहुत दूर न गये होंगे. सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें. खंदक की बात झूठ है. चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ. पत्ता तक न खुड़के. देर मत करो.'
-- हुकुम तो यह है कि यहीं...
-- ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम है... जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है. मैं लपटन साहब की ख़बर लेता हूँ.
-- पर यहाँ तो तुम आठ ही हो.
-- आठ नही, दस लाख। एक एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है. चले जाओ.
लौटकर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया. उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले. तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवारों मे घुसेड़ दिया और तीनों मे एक तार सा बाँध दिया. तार के आगे सूत की गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा. बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी रखने... बिजली की तरह दोनों हाथों से उलटी बन्दूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा. धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी. लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'आँख! मीन गाट्ट' कहते हुए चित हो गये. लहनासिंह ने तीनो गोले बीनकर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया. जेबों की तलाशी ली. तीन-चार लिफ़ाफ़े और एक डायरी निकाल कर उन्हे अपनी जेब के हवाले किया.
साहब की मूर्च्छा हटी. लहना सिह हँसकर बोला-- क्यो, लपटन साहब, मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं. यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं. यह सीखा कि जगाधरी के जिले मे नीलगायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं. यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियो पर जल चढाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढते हैं. पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिना 'डैम' के पाँच लफ़्ज भी नही बोला करते थे.
लहनासिंह ने पतलून की जेबों की तलाशी नही ली थी. साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनो हाथ जेबो मे डाले. लहनासिंह कहता गया-- चालाक तो बड़े हो, पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है. उसे चकमा देने के लिए चार आँखे चाहिएँ. तीन महीने हुए एक तुर्की मौलवी मेरे गाँव मे आया था. औरतो को बच्चे होने का ताबीज बाँटता था और बच्चो को दवाई देता था. चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं. वेद पढ़-पढ़ कर उसमे से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं. गौ को नही मारते. हिन्दुस्तान मे आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देगे. मंडी के बनियो को बहकाता था कि डाकखाने से रुपये निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है. डाक बाबू पोल्हू राम भी डर गया था. मैने मुल्ला की दाढी मूंड़ दी थी और गाँव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गाँव मे अब पैर रखा तो -- साहब की जेब मे से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ मे गोली लगी. इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो फ़ायरो ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी.
धडाका सुनकर सब दौड आये.
बोधा चिल्लाया-- क्या है?
लहनासिंह मे उसे तो यह कह कर सुला दिया कि 'एक हडका कुत्ता आया था, मार दिया' और औरो से सब हाल कह दिया. बंदूके लेकर सब तैयार हो गये. लहना ने साफ़ा फाड़ कर घाव के दोनो तरफ पट्टियाँ कसकर बांधी. घाव माँस मे ही था. पट्टियो के कसने से लूह बन्द हो गया.
इतने मे सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई मे घुस पड़े. सिखो की बंदूको की बाढ ने पहले धावे को रोका. दूसरे को रोका. पर यहाँ थे आठ (लहना सिंह तक-तक कर मार रहा था. वह खड़ा था औऱ लेटे हुए थे) और वे सत्तर. अपने मुर्दा भाईयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे. थोड़े मिनटो में वे... अचानक आवाज आयी --'वाह गुरुजी की फतह! वाहगुरु दी का खालसा!' और धड़ाधड़ बंदूको के फायर जर्मनो की पीठ पर पड़ने लगे. ऐन मौके पर जर्मन दो चक्कों के पाटों के बीच मे आ गए. पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे. पास आने पर पीछे वालो ने भी संगीन पिरोना शुरु कर दिया.
एक किलकारी और-- 'अकाल सिक्खाँ दी फौज आयी. वाह गुरु जी दी फतह! वाह गुरु जी दी खालसा! सत्त सिरी अकाल पुरुष! ' और लड़ाई ख़तम हो गई. तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे. सिक्खो में पन्द्रह के प्राण गए. सूबेदार के दाहिने कन्धे मे से गोली आर पार निकल गयी. लहनासिंह की पसली मे एक गोली लगी. उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया. और बाकी का साफ़ा कसकर कमर बन्द की तरह लपेट लिया. किसी को ख़बर नही हुई कि लहना के दूसरा घाव -- भारी घाव -- लगा है. लड़ाई के समय चांद निकल आया था. ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियो का दिया हुआ 'क्षयी' नाम सार्थक होता है. और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा मे 'दंतवीणो पदेशाचार्य' कहलाती. वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मनभर फ्रांस की भूमि मेरे बूटो से चिपक रही थी जब मैं दौडा दौडा सूबेदार के पीछे गया था. सूबेदार लहनासिह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर उसकी तुरन्त बुद्धि को सराह रहे थे और कर रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते. इस लड़ाई की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी. उन्होने पीछे टेलिफ़ोन कर दिया था. वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियाँ चली, जो कोई डेढ घंटे के अन्दर अन्दर आ पहुँची. फील्ड अस्पताल नज़दीक था. सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएंगे, इसलिए मामूली पट्टी बांधकर एक गाडी मे घायल लिटाये गए और दूसरी मे लाशें रखी गईं. सूबेदार ने लहनासिह की जाँघ मे पट्टी बंधवानी चाही. बोधसिंह ज्वर से बर्रा रहा था. पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जायेगा. वह गाडी मे लिटाया गया. लहना को छोडकर सूबेदार जाते नही थे. यह देख लहना ने कहा-- तुम्हे बोधा की कसम हैं और सूबेदारनी जी की सौगन्द है तो इस गाड़ी मे न चले जाओ.
-- और तुम?
-- मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना. और जर्मन मुर्दो के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होगीं. मेरा हाल बुरा नही हैं. देखते नही मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही.
-- अच्छा, पर...
-- बोधा गाडी पर लेट गया. भला, आप भी चढ़ आओ. सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना.
-- और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझ से जो उन्होने कहा था, वह मैंने कर दिया.
गाडियाँ चल पड़ी थीं. सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा-- तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं. लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे. अपनी सूबेदारनी से तू ही कह देना. उसने क्या कहा था?
-- अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ. मैने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना.
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया. --वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे. तर हो रहा है.
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है. जन्मभर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं. सारे दृश्यो के रंग साफ़ होते है, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है. लहनासिंह बारह वर्ष का है. अमृतसर मे मामा के यहाँ आया हुआ है. दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है. जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह 'धत्' कहकर भाग जाती है. एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा--हाँ, कल हो गयी, देखते नही, यह रेशम के फूलों वाला सालू? यह सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ. क्रोध हुआ. क्यों हुआ?
-- वजीरासिंह पानी पिला दे.

पच्चीस वर्ष बीत गये. अब लहनासिंह नं. 77 राइफ़ल्स मे जमादार हो गया है. उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा, न मालूम वह कभी मिली थी या नही. सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के मुकदमे की पैरवी करने वह घर गया. वहाँ रेजीमेंट के अफ़सर की चिट्ठी मिली. फौरन चले आओ. साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं, लौटते हुए हमारे घर होते आना. साथ चलेंगे.
सूबेदार का घर रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था. लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा. जब चलने लगे तब सूबेदार बेडे़ मे निकल कर आया. बोला-- लहनासिंह, सूबेदारनी तुमको जानती है. बुलाती है. जा मिल आ.
लहनासिंह भीतर पहुँचा. सूबेदारनी मुझे जानती है? कब से? रेजीमेंट के क्वार्टरों मे तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं. दरवाज़े पर जाकर 'मत्था टेकना' कहा. असीस सुनी. लहनासिंह चुप.
-- मुझे पहचाना?
-- नहीं.
-- 'तेरी कुड़माई हो गयी? ... धत्... कल हो गयी... देखते नही, रेशमी बूटों वाला सालू... अमृतसर में...
भावों की टकराहट से मूर्च्छा खुली. करवट बदली. पसली का घाव बह निकला.
-- वजीरासिंह, पानी पिला -- उसने कहा था.
स्वप्न चल रहा हैं. सूबेदारनी कह रही है-- मैने तेरे को आते ही पहचान लिया. एक काम कहती हूँ. मेरे तो भाग फूट गए. सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर मे ज़मीन दी है, आज नमकहलाली का मौक़ा आया है. पर सरकार ने हम तीमियो की एक घघरिया पलटन क्यो न बना दी जो मै भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है. फौज मे भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ. उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नही जिया. सूबेदारनी रोने लगी-- अब दोनों जाते हैं. मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगे वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था. तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे. आप घोड़ो की लातो पर चले गये थे. और मुझे उठाकर दुकान के तख्त के पास खड़ा कर दिया था. ऐसे ही इन दोनों को बचाना. यह मेरी भिक्षा है. तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ.
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी मे चली गयी. लहनासिंह भी आँसू पोछता हुआ बाहर आया.
-- वजीरासिंह, पानी पिला -- उसने कहा था.

लहना का सिर अपनी गोद मे रखे वजीरासिंह बैठा है. जब मांगता है, तब पानी पिला देता है. आध घंटे तक लहना फिर चुप रहा, फिर बोला-- कौन? कीरतसिंह?
वजीरा ने कुछ समझकर कहा-- हाँ.
-- भइया, मुझे और ऊँचा कर ले. अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले.
वजीरा ने वैसा ही किया.
-- हाँ, अब ठीक है. पानी पिला दे. बस। अब के हाड़ मे यह आम खूब फलेगा. चाचा-भतीजा दोनों यहीँ बैठकर आम खाना. जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही बड़ा यह आम, जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने मैने इसे लगाया था.
वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे. कुछ दिन पीछे लोगों ने अख़बारो में पढ़ा---
फ्रांस और बेलजियम-- 67वीं सूची-- मैदान मे घावों से मरा -- न. 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह.

______________चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' द्वारा रचित अद्वितीय कहानी
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Tuesday, July 22, 2008

सुनो क्या तुम्हें सुनाई देती है...



भयानक होती है रात

जब कुत्ते रोते हैं

लेकिन उससे भी भयानक होती है रात

जब कुत्ते हँसते हैं

सुनो क्या तुम्हें सुनाई देती है

किसी के हँसने की आवाज़!

________नरेश सक्सेना की कविता, साभार
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देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर


वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर.

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय,कर्म-रत मन,
गुरू हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार.

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रुप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगी छा गई,
प्राय: हुई दुपहर:
वह तोड़ती पत्थर.

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह कॉंपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
'मैं तोड़ती पत्थर'.
______________________सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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Saturday, July 19, 2008

एक गर्भवती औरत के प्रति दो कविताएँ


1
यह तुम्हारा उदर ब्रह्माण्ड हो गया है.
इसमें क्या है? एक बन रहा शिशु-भर?
झिल्ली में लिपटी मांस पहनती चेतना. बस?

कितनी फैलती जा रही है परिधि तुम्हारे उदर की
तुम क्या जानो
कि अंतरिक्ष तक चली गयी है यह विरूप गोलाई और ये
पेड़-पौधे, मकान, सड़कें, मैं, यह पोल, वह कुत्ता, उछलता वह मेढक
रँभाती गाय, बाड़ कतरता माली, क्षितिज पर का सूरज
सब उसके अंदर चले गये हैं
और तुम भी.

2

निरन्तर निर्माण में रत है तुम्हारा उदर
तुम्हारा रक्त, तुम्हारी मज्जा, तुम्हारा जीवन-रस
सब मिल कर जो रच रहे हैं
वह क्या है? एक
कनखजूरा
जो अकस्मात किसी बूट के नीचे आ जायेगा.
या किसी आदमजाद को डँसने के प्रयास के अपराध में
थुरकुच कर
सफ़ाई के खयाल से सड़क पर से किनारे हटा दिया जायेगा
-वही एक
कनखजूरा? घेर कर जिसके लिथड़े शव को
खड़े होंगे गाँव के सारे सम्भ्रान्त लोग ईश्वर को धन्यवाद देते
और यदि कोई विद्रोही कवि हुआ वहाँ ईश्वर और सफ़ाई
और स्वयं
पर थूक कर लिख देगा जिस पर एक कविता और
आकर ओढ़ चादर सो जायेगा. वही
एक कनखजूरा रच रही हो तुम?

किसी अबोध की तरह ताकती हो मेरा प्रश्न. तुम्हें
पता नहीं अपने फूले हुए पेट में सहेजते हुए जिसको
पिला रही हो अपना रक्त, श्रम, चौकसी
वह क्या है? मुझे है
पता
यह न हो वही कनखजूरा
पर हो जायेगा.

-------------ज्ञानेन्द्रपति, आँख हाथ बनते हुए में संकलित, साभार
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Friday, July 18, 2008

राम कथा के स्त्रीवादी विमर्श का एक रूप

खट्टर काका गरी काटते हुए बोले-
मान लो, यदि जनता एक स्वर में यही कहती कि सीता को राज्य से निर्वासित कर दीजिए, तथापि राम का अपना कर्तव्य क्या था? जब वह जानते थे कि महारानी निर्दोष है, अग्निपरीक्षा में उत्तीर्ण हो चुकी है, तब संसार के कहने से ही क्या? वह अपने न्याय पर अटल रहते. यदि प्रजा विद्रोह की आशंका होती, तो पुन: भरत को गद्दी पर बैठाकर दोनों जने जंगल की राह पकड़ते, तब आदर्शपालन कहलाता. परन्तु राजा राम ने केवल राज्य की समझा, प्रेम नहीं. महारानी सीता तो अपने पत्नी धर्म के आगे संसार का साम्राज्य ठुकरा देतीं, लेकिन राम राजा अपने पतिधर्म के आगे अयोध्या की गद्दी नहीं छोड़ सके. सती शिरोमणि सीता के लिए वह उतना भी त्याग नहीं कर सके, जितना विलायत के एक बादशाह अष्टम एडवर्ड ने अपनी एक चहेती सिंप्सन के लिए किया!

______________________हरिमोहन झा, खट्टर काका का एक अंश
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Wednesday, July 16, 2008

पहाड़


पेड़
बनकर बीज
पकड़कर हवा
पहुँच जाते हैं
पहाड़ पर धीरे-धीरे
होते हैं प्रकट
अपने पत्तों और टहनियों के साथ
पहाड़ पर
पहाड़ भी जानते हैं
बीज
बन जाएगा पेड़
धीरे-धीरे
इसलिए
वे कभी बनते नहीं हैं बाधा
बीज के विकास में
क्योंकि उन्हें भी होता है
इंतजार पेड़ का
अपनी सूनी छाती पर.

----------------------राजकुमार केसवानी, पहल से साभार
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Monday, July 14, 2008

मोटेराम जी शास्त्री


पण्डित मोटेरा जी शास्त्री को कौन नही जानता! आप अधिकारियों का रूख देखकर काम करते है. स्वदेशी आन्दोलने के दिनों मे अपने उस आन्दोलन का खूब विरोध किया था. स्वराज्य आन्दोलन के दिनों मे भी अपने अधिकारियों से राजभक्ति की सनद हासिल की थी. मगर जब इतनी उछल-कूद पर उनकी तकदीर की मीठी नींद न टूटी, और अध्यापन कार्य से पिण्ड न छूटा, तो अन्त मे अपनी एक नई तदबीर सोची। घर जाकर धर्मपत्नी जी से बोले—इन बूढ़े तोतों को रटाते-रटातें मेरी खोपड़ी पच्ची हुई जाती है. इतने दिनों विद्या-दान देने का क्याफल मिला जो और आगे कुछ मिलने की आशा करूं.
धर्मपत्न ने चिन्तित होकर कहा—भोजनों का भी तो कोई सहारा चाहिए.
मोटेराम—तुम्हें जब देखो, पेट ही की फ्रिक पड़ी रहती है. कोई ऐसा विरला ही दिन जाता होगा कि निमन्त्रण न मिलते हो, और चाहे कोई निन्दा करें, पर मै परोसा लिये बिना नहीं आता हूं. आज ही सब यजमान मरे जाते है? मगर जन्म-भर पेट ही जिलया तो क्या किया। संसार का कुछ सुख भी तो भोगन चाहिए. मैने वैद्य बनने का निश्चय किया है.
स्त्री ने आश्चर्य से कहा—वैद्य बनोगे, कुछ वैद्यकी पढ़ी भी है?
मोटे—वैद्यक पढने से कुछ नही होता, संसार मे विद्या का इतना महत्व नही जितना बुद्धि क। दो-चार सीधे-सादे लटके है, बस और कुछ नही. आज ही अपने नाम के आगे भिष्गाचार्य बढ़ा लूंगा, कौन पूछने आता है, तुम भिषगाचार्य हो या नही. किसी को क्या गरज पड़ी है जो मेरी परीक्षा लेता फिरे. एक मोटा-सा साइनबोर्ड बनवा लूंगा. उस पर शब्द लिखें होगे—यहा स्त्री पुरूषों के गुप्त रोगों की चिकित्सा विशेष रूप से की जाती है. दो-चार पैसे का हउ़-बहेड़ा-आवंला कुट छानकर रख लूंगा. बस, इस काम के लिए इतना सामान पर्याप्त है. हां, समाचारपत्रों मे विज्ञापन दूंगा और नोटिस बंटवाऊंगा. उसमें लंका, मद्रास, रंगून, कराची आदि दूरस्थ स्थानों के सज्जनों की चिटिठयां दर्ज की जाएंगी. ये मेरे चिकित्सा-कौशल के साक्षी होगें जनता को क्या पड़ी है कि वह इस बात का पता लगाती फिरे कि उन स्थानों मे इन नामों के मनुष्य रहते भी है, या नहीं फिर देखों वैद्य की कैसी चलती है.
स्त्री—लेकिन बिना जाने-बूझ दवा दोगे, तो फायदा क्या करेगी?
मोटे—फायदा न करेगी, मेरी बला से। वैद्य का काम दवा देना है, वह मृत्यु को परस्त करने का ठेका नही लेता, और फिर जितने आदमी बीमार पड़ते है, सभी तो नही मर जाते. मेरा यह कहना है कि जिन्हें कोई औषधि नही दी जाती, वे विकार शान्त हो जाने पर ही अच्छे हो जाते है. वैद्यों को बिना मांगे यश मिलता है. पांच रोगियों मे एक भी अच्छा हो गया, तो उसका यश मुझे अवश्य ही मिलेगा. शेष चार जो मर गये, वे मेरी निन्दा करने थोडे ही आवेगें. मैने बहुत विचार करके देख लिया, इससे अच्छा कोई काम नही है. लेख लिखना मुझे आता ही है, कवित्त बना ही लेता हूं, पत्रों मे आयुर्वेद-महत्व पर दो-चार लेख लिख दूंगा, उनमें जहां-तहां दो-चार कवित्त भी जोड़ दूंगा और लिखूगां भी जरा चटपटी भाषा में. फिर देखों कितने उल्लू फसते है यह न समझो कि मै इतने दिनो केवल बूढे तोते ही रटाता रहा हूं. मै नगर के सफल वैद्यो की चालों का अवलोकन करता रहा हूं और इतने दिनों के बाद मुझे उनकी सफलता के मूल-मंत्र का ज्ञान हुआ है. ईश्वर ने चाहा तो एक दिन तुम सिर से पांव तक सोने से लदी होगी.
स्त्री ने अपने मनोल्लास को दबाते हुए कहा—मै इस उम्र मे भला क्या गहने पहनूंगी, न अब वह अभिलाषा ही है, पर यह तो बताओं कि तुम्हें दवाएं बनानी भी तो नही आती, कैसे बनाओगे, रस कैसे बनेगें, दवाओ को पहचानते भी तो नही हो.
मोटे—प्रिये! तुम वास्तव मे बड़ी मूर्ख हो. अरे वैद्यो के लिए इन बातों मे से एक भी आवश्यकता नही, वैद्य की चुटकी की राख ही रस है, भस्म है, रसायन है, बस आवश्यकता है कुछ ठाट-बाट की. एक बड़ा-सा कमरा चाहिए उसमें एक दरी हो, ताखों पर दस-पांच शीशीयां बोतल हो. इसके सिवा और कोई चीज दरकार नही, और सब कुछ बुद्धि आप ही आप कर लेती है. मेरे साहित्य-मिश्रित लेखों का बड़ा प्रभाव पड़ेगा, तुम देख लेना. अलंकारो का मुझे कितना ज्ञान है, यह तो तुम जानती ही हो. आज इस भूमण्डल पर मुझे ऐसा कोई नही दिखता जो अलंकारो के विषय मे मुझसे पेश पा सके. आखिर इतने दिनों घास तो नही खोदी है! दस-पाचं आदमी तो कवि-चर्चा के नाते ही मेरे यहां आया जाया करेगें. बस, वही मेरे दल्लाह होगें. उन्ही की मार्फत मेरे पास रोगी आवेगें. मै आयुर्वेद-ज्ञान के बल पर नही नायिका-ज्ञान के बल पर धड़ल्ले से वैद्यक करूंगा, तुम देखती तो जाओ.
स्त्री ने अविश्वास के भाव से कहा—मुझे तो डर लगता है कि कही यह विद्यार्थी भी तुम्हारे हाथ से न जाए. न इधर के रहो ने उधर के। तुम्हारे भाग्य मे तो लड़के पढ़ाना लिखा है, और चारों ओर से ठोकर खाकर फिर तुम्हें वी तोते रटाने पडेगें.
मोटे—तुम्हें मेरी योग्यता पर विश्वास क्यों नही आता?
स्त्री—इसलिए कि तुम वहां भी धुर्तता करोगे. मै तुम्हारी धूर्तता से चिढ़ती हूं. तुम जो कुछ नही हो और नही हो सकते,वक क्यो बनना चाहते हो? तुम लीडर न बन सके, न बन सके, सिर पटककर रह गये. तुम्हारी धूर्तता ही फलीभूत होती है और इसी से मुझे चिढ़ है. मै चाहती हूं कि तुम भले आदमी बनकर रहो. निष्कपट जीवन व्यतीत करो. मगर तुम मेरी बात कब सुनते हो?
मोटे—आखिर मेरा नायिका-ज्ञान कब काम आवेगा?
स्त्री—किसी रईस की मुसाहिबी क्यो नही कर लेते? जहां दो-चार सुन्दर कवित्त सुना दोगें. वह खुश हो जाएगा और कुछ न कुछ दे ही मारेगा. वैद्यक का ढोंग क्यों रचते हों!
मोटे—मुझे ऐसे-ऐसे गुर मालूम है जो वैद्यो के बाप-दादों को भी न मालूम होगे. और सभी वैद्य एक-एक, दो-दो रूपये पर मारे-मारे फिरते है, मै अपनी फीस पांच रूपये रक्खूंगा, उस पर सवारी का किराया अलग. लोग यही समझेगें कि यह कोई बडे वैद्य है नही तो इतनी फीस क्यों होती?
स्त्री को अबकी कुछ विश्वास आया बोली—इतनी देर मे तुमने एक बात मतलब की कही है. मगर यह समझ लो, यहां तुम्हारा रंग न जमेगा, किसी दूसरे शहर को चलना पड़ेगा.
मोटे—(हंसकर) क्या मैं इतना भी नही जानता. लखनऊ मे अडडा जमेगा अपना. साल-भर मे वह धाक बांध दूं कि सारे वैद्य गर्द हो जाएं. मुझे और भी कितने ही मन्त्र आते है. मै रोगी को दो-तीन बार देखे बिना उसकी चिकित्सा ही न करूंगा. कहूंगा, मै जब तक रोगी की प्रकृति को भली भांति पहचान न लूं, उसकी दवा नही कर सकता. बोलो, कैसी रहेगी?
स्त्री की बांछे खिल गई, बोली—अब मै तुम्हे मान गई, अवश्य चलेगी तुम्हारी वैद्यकी, अब मुझे कोई संदेह नही रहा. मगर गरीबों के साथ यह मंत्र न चलाना नही तो धोखा खाओगे.

2

साल भर गुजर गया.
भिषगाचार्य पण्डित मोटेराम जी शास्त्री की लखनऊ मे घूम मच गई. अलंकारों का ज्ञान तो उन्हे था ही, कुछ गा-बजा भी लेते थे. उस पर गुप्त रोगो के विशेषज्ञ, रसिको के भाग्य जागें. पण्डित जी उन्हें कवित सुनाते, हंसाते, और बलकारक औषधियां खिलाते, और वह रईसों मे, जिन्हें पुष्टिकारक औषधियों की विशेष चाह रहती है, उनकी तारीफों के पुल बांधते. साल ही भर मे वैद्यजी का वह रंग जमा, कि शायदं गुप्त रोगों के चिकित्सक लखनऊ मे एकमात्र वही थे. गुप्त रूप से चिकित्सा भी करते. विलासिनी विधवारानियों और शौकीन अदूरदर्शी रईसों मे आपकी खूब पूजा होने लगी. किसी को अपने सामने समझते ही न थे.
मगर स्त्री उन्हे बराबर समझाया करती कि रानियों के झमेलें मे न फंसों, नहीं तो एक दिन पछताओगे.
मगर भावी तो होकर ही रहती है, कोई लाख समझाये-बुझाये. पंडितजी के उपासको मे बिड़हल की रानी भी थी. राजा साहब का स्वर्गवास हो चुका था, रानी साहिबा न जाने किस जीर्ण रोग से ग्रस्त थी. पण्डितजी उनके यहां दिन मे पांच-पाचं बार जाते. रानी साहिबा उन्हें एक क्षण के लिए भी देर हो जाती तो बेचैन हो जाती, एक मोटर नित्य उनके द्वार पर खड़ी रहती थी. अब पण्डित जी ने खूब केचुल बदली थी. ताजेब की अचकन पहनते, बनारसी साफा बाधते और पम्प जूता डाटते थे. मित्रगण भी उनके साथ मोटर पर बैठकर दनदनाया करते थे. कई मित्रों को रानी सहिबा के दरबार मे नौकर रखा दिया. रानी साहिबा भला अपने मसीहा की बात कैसी टालती.
मगर चर्खे जफाकार और ही षडयन्त्र रच रहा था.
एक दिन पण्डितजी रानी साहिबा की गोरी-गोरी कलाई पर एक हाथ रखे नब्ज देख रहे थे, और दूसरे हाथ से उनके हृदय की गति की परिक्षा कर रहे थे कि इतने मे कई आदमी सोटै लिए हुए कमरे मे घुस आये और पण्डितजी पर टूट पड़े. रानी भागकर दूसरे कमरे की शरण ली और किवाड़ बन्द कर लिए. पण्डितजी पर बेभाव पड़ने लगे. यों तो पण्डितजी भी दमखम के आदमी थे, एक गुप्ती सदैव साथ रखते थे. पर जब धोखे मे कई आदमियों ने धर दबाया तो क्या करते? कभी इसका पैर पकड़ते कभी उसका. हाय-हाय! का शब्द मुंह से निकल रहा था पर उन बेरहमों को उन पर जरा भी दया न आती थी, एक आदमी ने एक लात जमाकर कहा—इस दुष्ट की नाक काट लो.
दूसरा बोला—इसके मुंह मे कलिख और चूना लगाकर छोड़ दो.
तीसरा—क्यों वैद्यजी महाराज, बोलो क्या मंजूर है? नाक कटवाओगे या मुंह मे कालिख लगवाओगें?
पण्डित—भूलकर भी नही सरकार. हाय मर गया!
दूसरा—आज ही लखनऊ से रफरैट हो जाओं नही तो बुरा होगा.
पणिडत—सरकार मै आज ही चला जाऊगां. जनेऊ की शपथ खाकर कहता हूं. आप यहां मेरी सूरत न देखेगें.
तीसरा—अच्छा भाई, सब कोई इसे पांच-पांच लाते लगाकर छोड़ दो.
पण्डित—अरे सरकार, मर जाऊगां, दया करो
चौथा—तुम जैसे पाखंडियो का मर जाना ही अच्छा है. हां तो शुरू हो.
पंचलत्ती पड़ने लगी, धमाधम की आवाजें आने लगी. मालूम होता था नगाड़े पर चोट पड़ रही है. हर धमाके के बाद एक बार हाय की आवाज निकल आती थी, मानों उसकी प्रतिध्वनी हो.
पंचलत्ती पूजा समाप्त हो जाने पर लोगों ने मोटेराम जी को घसीटकर बाहर निकाला और मोटर पर बैठाकर घर भेज दिया, चलते-चलते चेतावनी दे दी, कि प्रात:काल से पहले भाग खड़े होना, नही तो और ही इलाज किया जाएगा.


मोटेराम जी लंगड़ाते, कराहते, लकड़ी टेकते घर मे गए और धम से चारपाई पर गिर पडे. स्त्री ने घबराकर पूछा—कैसा जी है? अरे तुम्हारा क्या हाल है? हाय-हाय यह तुम्हारा चेहरा कैसा हो गया!
मोटे—हाय भगवान, मर गया.
स्त्री—कहां दर्द है? इसी मारे कहती थी, बहुत रबड़ी न खाओं. लवणभास्कर ले आऊं?
मोटे—हाय, दुष्टों ने मार डाला. उसी चाण्डालिनी के कारण मेरी दुर्गति हुई. मारते-मारते सबों ने भुरकुस निकाल दिया.
स्त्री—तो यह कहो कि पिटकर आये हो. हां, पिटे हो. अच्छा हुआ. हो तुम लातो ही के देवता. कहती थी कि रानी के यहां मत आया-जाया करो. मगर तुम कब सुनते थे.
मोटे—हाय, हाय! रांड, तुझे भी इसी दम कोसने की सूझी. मेरा तो बुरा हाल है और तू कोस रही है. किसी से कह दे, ठेला-वेला लावे, रातो-रात लखनऊ से भाग जाना है. नही तो सबेरे प्राण न बचेगें.
स्त्री—नही, अभी तुम्हारा पेट नही भरा. अभी कुछ दिन और यहां की हवा खाओ! कैसे मजे से लड़के पढात थे, हां नही तो वैद्य बनने की सूझी. बहुत अच्छा हुआ, अब उम्र भर न भूलोगे. रानी कहां थी कि तुम पिटते रहे और उसने तुम्हारी रक्षा न की.
पण्डित—हाय, हाय वह चुडैल तो भाग गई. उसी के कारण क्या जानता था कि यह हाल होगा, नहीं तो उसकी चिकित्सा ही क्यों करता?
स्त्री—हो तुम तकदीर के खोटे. कैसी वैद्यकी चल गई थी. मगर तुम्हारी करतूतों ने सत्यनाश मार दिया. आखिर फिर वही पढौनी करना पड़ी. हो तकदीर के खोटे.
प्रात:काल मोटेराम जी के द्वार पर ठेला खड़ा था और उस पर असबाब लद रहा था. मित्रो मे एक भी नजर न आता था. पण्डित जी पड़े कराह रहे थे और स्त्री सामान लदवा रही थी.
____________ प्रेमचंद, ‘माधुरी’ जनवरी, १९२८
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Saturday, July 5, 2008

निराशा


निराशा एक बेलगाम घोड़ी है

न हाथ में लगाम होगी न रकाब में पांव

खेल नहीं उस पर गद्दी गाँठना

दुलत्ती झाड़ेगी और ज़मीन पर पटक देगी

बिगाड़ कर रख देगी सारा चेहरा-मोहरा

बगल में खड़ी होकर

ज़मीन पर अपने खुर बजाएगी

धूल के बगूले बनाएगी

जैसे कहती हो

दम है तो दुबारा गद्दी गाँठो मुझ पर

भागना चाहोगे तो भागने नहीं देगी

घसीटते हुए ले जाएगी

और न जाने किन जंगलों में छोड़ आएगी !

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राजेश जोशी की एक कविता
( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार )
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Thursday, July 3, 2008

सहानुभूति की माँग


आत्मा इतनी थकान के बाद
एक कप चाय माँगती है
पुण्य माँगता है पसीना और आँसू पोछने के लिए एक तौलिया
कर्म माँगता है रोटी और कैसी भी सब्जी

ईश्वर कहता है सिरदर्द की गोली ले आना
आधा गिलास पानी के साथ

और तो और फकीर और कोढ़ी तक बंद कर देते हैं
थक कर भीख माँगना
दुआ और मिन्नतों की जगह
उसके गले से निकलती है
उनके गरीब फेफड़ों की हवा

चलिए मैं भी पूछता हूँ
क्या माँगू इस ज़माने से मीर
जो देता है भरे पेट को खाना,
दौलत मंद को सोना, हत्यारे को हथियार,
बीमार को बीमारी, कमज़ोर की निर्बलता
अन्यायी को सत्ता
और व्यभिचारी को बिस्तर

पैदा करो सहानुभूति
कि मैं अब भी हँसता हुआ दिखता हूँ
अब भी लिखता हूँ कविताएँ.

---------------------उदय प्रकाश की कविता, साभार
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