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सिविल सेवा परीक्षा संबंधी

भारतेन्दु हरिश्चंद

1.सब गुरूजन को बुरो बतावै
अपनी खिचड़ी अलग पकावै,
भीतर तत्व न झूठी तेजी
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी.
2.
तीन बुलाए तेरह आवै
निज निज बिपता रोई सुनावै,
आँखौ फूटे भरा न पेट
क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रैजुएट.
3.
सुंदर बानी कहि समुझावै
बिधवागन सों नेह बढ़ावै,
दयानिधान परम गुन-सागर
सखि सज्जन नहिं विद्यासागर.
4.
सीटी देकर पास बुलावै
रूपया ले तो निकट बिठावै,
ले भागै मोहि खेलहि खेल
क्यों सखि सज्ज्न नहिं सखि रेल.
5.
धन लेकर कुछ काम न आव
ऊँची नीची राह दिखाव,
समय पड़ै पर सीधै गुंगी
क्यों सखि सज्ज्न नहिं सखि चुंगी.
6.
रूप दिखावत सरबस लूटै
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै,
कपट कटारी जिय मैं हुलिस
क्यों सखि सज्ज्न नहिं सखि पुलिस.
7.
भीतर भीतर सब रस चूसै
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै,
जाहिर बातन मैं अति तेज
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेज.
8.
एक गरभ मैं सौ सौ पूत
जनमावै ऐसा मजबूत,
करै खटाखट काम सयाना
सखि सज्जन नहिं छापाखाना.
9.
नई नई नित तान सुनावै
अपने जाल में जगत फँसावै,
नित नित हमैं करै बल-सून
क्यों सखि सज्जन नहिं कानून.
10.
इनकी उनकी खिदमत करो
रूपया देते देते मरो,
तब आवै मोहिं करन खराब
क्यों सखि सज्जन नहिं खिताब.
11.
मूँह जब लागै तब नहिं छूटै
जाति मान धन सब कुछ लूटै,
पागल करि मोहिं करै खराब
क्यों सखि सज्जन नहिं सराब.

तमस Online

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Wednesday, August 13, 2008

धार

कौन बचा है जिसके आगे
इन हाथों को नहीं पसारा

यह अनाज जो बदल रक्त में
टहल रहा है तन के कोने-कोने
यह कमीज़ जो ढाल बनी है
बारिश सरदी लू में
सब उधार का, माँगा चाहा
नमक-तेल, हींग-हल्दी तक
सब कर्जे का
यह शरीर भी उनका बंधक

अपना क्या है इस जीवन में
सब तो लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का
अपनी केवल धार.

______अरुण कमल, अपनी केवल धार से साभार
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Sunday, August 10, 2008

ईदगाह

रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है. कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है. वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है. आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है. गॉंव में कितनी हलचल है. ईदगाह जाने की तैयारियॉँ हो रही हैं. किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है. किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है. जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें. ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी. तीन कोस का पेदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लोटना असम्भव है. लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं. किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है. रोजे बड़े-बूढ़ो के लिए होंगे. इनके लिए तो ईद है. रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई. अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते. इन्हें गृहस्थी चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयां खाऍंगे. वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं. उन्हें क्या खबर कि चौधरी ऑंखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए. उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर काधन भरा हुआ है. बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं. महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं. मोहनसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं. इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लाऍंगें— खिलौने, मिठाइयां, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या. और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद. वह चार-पॉँच साल का गरीब सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और मॉँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई. किसी को पता क्या बीमारी है. कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया,. तो संसार से विदा हो गई. अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है. उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं. बहुत-सी थैलियॉँ लेकर आऍंगे. अम्मीजान अल्लहा मियॉँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है. आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है. हामिद के पॉंव में जूते नहीं हैं, सिर परएक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है. जब उसके अब्बाजान थैलियॉँ और अम्मीजान नियमतें लेकर आऍंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा. तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहॉँ से उतने पैसे निकालेंगे.
अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है. आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अन्धकार और निराशा में वह डूबी जा रही है. किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने के क्या मतल? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितबन उसका विध्वसं कर देगी.
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है—तुम डरना नहीं अम्मॉँ, मै सबसे पहले आऊँगा. बिल्कुल न डरना.
अमीना का दिल कचोट रहा है. गॉँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं. हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे केसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी. नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जाऍंगे. जूते भी तो नहीं हैं. वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहॉँ सेवैयॉँ कोन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते-लोटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती. यहॉँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे. मॉँगे का ही तो भरोसा ठहरा. उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे. आठ आने पेसे मिले थे. उस उठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं हे, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही. अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं. तीन पैसे हामिद की जेब में, पांच अमीना के बटुवें में. यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्ला ही बेड़ा पर लगाए. धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आऍंगी. सभी को सेवेयॉँ चाहिए और थोड़ा किसी को ऑंखों नहीं लगता. किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराए? साल-भर का त्योंहार हैं. जिन्दगी खैरियत से रहें, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है: बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन भी कट जाऍंगे.
गॉँव से मेला चला. ओर बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था. कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते. फिर किसी पेड़ के नींचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते. यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं. वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया. सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं. पक्की चारदीवारी बनी हुई है. पेड़ो में आम और लीचियॉँ लगी हुई हैं. कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता है. माली अंदर से गाली देता हुआ निंलता है. लड़के वहाँ से एक फलॉँग पर हैं. खूब हँस रहे हैं. माली को केसा उल्लू बनाया है.
बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं. यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब घर है. इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं. इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं. न जाने कब तक पढ़ेंगे ओर क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हें, बिल्कुल तीन कौड़ी के. रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले. इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या. क्लब-घर में जादू होता है. सुना है, यहॉँ मुर्दो की खोपड़ियां दौड़ती हैं. और बड़े-बड़े तमाशे होते हें, पर किसी कोअंदर नहीं जाने देते. और वहॉँ शाम को साहब लोग खेलते हैं. बड़े-बड़े आदमी खेलते हें, मूँछो-दाढ़ी वाले. और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्मॉँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सके. घुमाते ही लुढ़क जाऍं.
महमूद ने कहा—हमारी अम्मीजान का तो हाथ कॉँपने लगे, अल्ला कसम.
मोहसिन बोल—चलों, मनों आटा पीस डालती हैं. जरा-सा बैट पकड़ लेगी, तो हाथ कॉँपने लगेंगे! सौकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं. पॉँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है. किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो ऑंखों तक अँधेरी आ जाए.
महमूद—लेकिन दौड़तीं तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं.
मोहसिन—हॉँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्मॉँ इतना तेज दौड़ी कि में उन्हें न पा सका, सच.
आगे चले. हलवाइयों की दुकानें शुरू हुई. आज खूब सजी हुई थीं. इतनी मिठाइयॉँ कौन खाता? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी. सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं. अब्बा कहते थें कि आधी रात को एक आदमी हर दूकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये.
हामिद को यकीन न आया—ऐसे रूपये जिन्नात को कहॉँ से मिल जाऍंगी?
मोहसिन ने कहा—जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहें चले जाऍं. लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं. जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए. अभी यहीं बैठे हें, पॉँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जाऍं.
हामिद ने फिर पूछा—जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?
मोहसिन—एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाए तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाए.
हामिद—लोग उन्हें केसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिनन को खुश कर लूँ.
मोहसिन—अब यह तो न जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं. कोई चीज चोरी जाए चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देगें. जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था. तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गए. चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला. जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं.
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है.
आगे चले. यह पुलिस लाइन है. यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं. रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियॉँ हो जाऍं. मोहसिन ने प्रतिवाद किया—यह कानिसटिबिल पहरा देते हें? तभी तुम बहुत जानते हों अजी हजरत, यह चोरी करते हैं. शहर के जितने चोर-डाकू हें, सब इनसे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जाते रहो!’ पुकारते हैं. तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हैं. मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हैं. बरस रूपया महीना पाते हें, लेकिन पचास रूपये घर भेजते है. अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहॉँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे—बेटा, अल्लाह देता है. फिर आप ही बोले—हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाऍं. हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए.
हामिद ने पूछा—यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?
मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला..अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है. हराम का माल हराम में जाता है. थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गई. सारी लेई-पूँजी जल गई. एक बरतन तक न बचा. कई दिन पेड़ के नीचे सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिरन जाने कहॉँ से एक सौ कर्ज लाए तो बरतन-भॉँड़े आए.
हामिद—एक सौ तो पचार से ज्यादा होते है?
‘कहॉँ पचास, कहॉँ एक सौ. पचास एक थैली-भर होता है. सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं?
अब बस्ती घनी होने लगी. ईइगाह जाने वालो की टोलियॉँ नजर आने लगी. एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए. कोई इक्के-तॉँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग. ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था. बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं. जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से आर्न की आवाज होने पर भी न चेतते. हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा.
सहसा ईदगाह नजर आई. ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है. नाचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम ढिछा हुआ है. और रोजेदारों की पंक्तियॉँ एक के पीछे एक न जाने कहॉँ वक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहॉँ जाजम भी नहीं है. नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं. आगे जगह नहीं है. यहॉँ कोई धन और पद नहीं देखता. इस्लाम की निगाह में सब बराबर है. इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गए. कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाऍं, और यही ग्रम चलता, रहे. कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाऍं, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं.
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नमाज खत्म हो गई. लोग आपस में गले मिल रहे हैं. तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है. ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है. यह देखो, हिंडोला हें एक पैसा देकर चढ़ जाओ. कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए. यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ो में लटके हुए हैं. एक पैसा देकर बैठ जाओं और पच्चीस चक्करों का मजा लो. महमूद और मोहसिन और नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटो पर बैठते हैं. हामिद दूर खड़ा है. तीन ही पैसे तो उसके पास हैं. अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता.
सब चर्खियों से उतरते हैं. अब खिलौने लेंगे. अधर दूकानों की कतार लगी हुई है. तरह-तरह के खिलौने हैं—सिपाही और गुजरिया, राज ओर वकी, भिश्ती और धोबिन और साधु। वह! कत्ते सुन्दर खिलोने हैं. अब बोला ही चाहते हैं. महमूद सिपाही लेता हे, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधें पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता हे, अभी कवायद किए चला आ रहा है. मोहसिन को भिश्ती पसंद आया. कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है. कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है. बस, मशक से पानी अड़ेला ही चाहता है. नूरे को वकील से प्रेम है. कैसी विद्वत्ता हे उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पौथा लिये हुए. मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहे है. यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं. हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौन वह केसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए. जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाए. ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के!
मोहसिन कहता है—मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा सॉँझ-सबेरे.
महमूद—और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा.
नूरे—और मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा.
सम्मी—और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी.
हामिद खिलौनों की निंदा करता है—मिट्टी ही के तो हैं, गिरे तो चकनाचूर हो जाऍं, लेकिन ललचाई हुई ऑंखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता. उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हें, विशेषकर जब अभी नया शौक है. हामिद ललचता रह जाता है.
खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं. किसी ने रेवड़ियॉँ ली हें, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा. मजे से खा रहे हैं. हामिद बिरादरी से पृथक् है. अभागे के पास तीन पैसे हैं. क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई ऑंखों से सबक ओर देखता है.
मोहसिन कहता है—हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!
हामिद को सदेंह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद हें मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है. मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है. हामिद हाथ फैलाता है. मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है. महमूद नूरे ओर सम्मी खूब तालियॉँ बजा-बजाकर हँसते हैं. हामिद खिसिया जाता है.
मोहसिन—अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जा.
हामिद—रखे रहो. क्या मेरे पास पैसे नहीं है?
सम्मी—तीन ही पेसे तो हैं. तीन पैसे में क्या-क्या लोगें?
महमूद—हमसे गुलाबजामुन ले जाओ हामिद। मोहमिन बदमाश है.
हामिद—मिठाई कौन बड़ी नेमत है. किताब में इसकी कितनी बुराइयॉँ लिखी हैं.
मोहसिन—लेकिन दिन मे कह रहे होगे कि मिले तो खा लें. अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?
महमूद—इस समझते हें, इसकी चालाकी. जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाऍंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा.
मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की. लड़कों के लिए यहॉँ कोई आकर्षण न था. वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पर रूक जाते हैं. कई चिमटे रखे हुए थे. उसे ख्याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है. तबे से रोटियॉँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है. अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होगी! फिर उनकी ऊगलियॉँ कभी न जलेंगी. घर में एक काम की चीज हो जाएगी. खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं. जरा देर ही तो खुशी होती है. फिर तो खिलौने को कोई ऑंख उठाकर नहीं देखता. यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जाऍंगे. चिमटा कितने काम की चीज है. रोटियॉँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो. कोई आग मॉँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो. अम्मॉँ बेचारी को कहॉँ फुरसत हे कि बाजार आऍं और इतने पैसे ही कहॉँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं.
हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं. सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं. देखो, सब कतने लालची हैं. इतनी मिठाइयॉँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी. उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो. मेरा यह काम करों. अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा. खाऍं मिठाइयॉँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियॉं निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी. तब घर से पैसे चुराऍंगे और मार खाऍंगे. किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं. मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्मॉँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी—मेरा बच्चा अम्मॉँ के लिए चिमटा लाया है. कितना अच्छा लड़का है. इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआऍं देगा? बड़ों का दुआऍं सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं. मैं भी इनसे मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ मॉँगने तो नहीं जाते. आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आऍंगे. अम्मा भी ऑंएगी ही. फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा हूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जात है. यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियॉँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे. सबके सब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है. हंसें! मेरी बला से! उसने दुकानदार से पूछा—यह चिमटा कितने का है?
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा—तुम्हारे काम का नहीं है जी!
‘बिकाऊ है कि नहीं?’
‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहॉँ क्यों लाद लाए हैं?’
तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
‘छ: पैसे लगेंगे.‘
हामिद का दिल बैठ गया.
‘ठीक-ठीक पॉँच पेसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो.‘
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा तीन पैसे लोगे?
यह कहता हुआ व आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियॉँ न सुने. लेकिन दुकानदार ने घुड़कियॉँ नहीं दी. बुलाकर चिमटा दे दिया. हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानों बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया. जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाऍं करते हैं!
मोहसिन ने हँसकर कहा—यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?
हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटकर कहा—जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो. सारी पसलियॉँ चूर-चूर हो जाऍं बचा की.
महमूद बोला—तो यह चिमटा कोई खिलौना है?
हामिद—खिलौना क्यों नही है! अभी कन्धे पर रखा, बंदूक हो गई. हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया. चाहूँ तो इससे मजीरे काकाम ले सकता हूँ. एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाए. तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगाऍं, मेरे चिमटे का बाल भी बॉंका नही कर सकतें मेरा बहादुर शेर है चिमटा.
सम्मी ने खँजरी ली थी. प्रभावित होकर बोला—मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है.
हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा-मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खॅजरी का पेट फाड़ डाले. बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी. जरा-सा पानी लग जाए तो खत्म हो जाए. मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, ऑंधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा.
चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आए हें, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है. घर पहुंचने की जल्दी हो रही है. बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता. हामिद है बड़ा चालाक. इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे.
अब बालकों के दो दल हो गए हैं. मोहसिन, महमद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ. शास्त्रर्थ हो रहा है. सम्मी तो विधर्मी हा गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहनि, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं. उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति. एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है. वह अजेय है, घातक है. अगर कोई शेर आ जाए मियॉँ भिश्ती के छक्के छूट जाऍं, जो मियॉँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागे, वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुंह छिपाकर जमीन पर लेट जाऍं. मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा और उसकी ऑंखे निकाल लेगा.
मोहसिन ने एड़ी—चोटी का जारे लगाकर कहा—अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा—भिश्ती को एक डांट बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा.
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई—अगर बचा पकड़ जाऍं तो अदालम में बॅधे-बँधे फिरेंगे. तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेगे.
हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका. उसने पूछा—हमें पकड़ने कौने आएगा?
नूरे ने अकड़कर कहा—यह सिपाही बंदूकवाला.
हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा—यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे—हिंद को पकड़ेगें! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाए. इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे. पकड़ेगें क्या बेचारे!
मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई—तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा.
उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जाएगा, लेकिन यह बात न हुई. हामिद ने तुरंत जवाब दिया—आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लैडियों की तरह घर में घुस जाऍंगे. आग में वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है.
महमूद ने एक जोर लगाया—वकील साहब कुरसी—मेज पर बैठेगे, तुम्हारा चिमटा तो बाबरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
इस तर्क ने सम्मी औरनूरे को भी सजी कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धॉँधली शुरू की—मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा. वकील साहब कुर्सी पर बैठेगें, तो जाकर उन्हे जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा.
बात कुछ बनी नही. खाल गाली-गलौज थी, लेकिन कानून को पेट में डालनेवाली बात छा गई. ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए मानो कोई धेलचा कानकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो. कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज है. उसको पेट के अन्दर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है. हामिद ने मैदान मार लिया. उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द है. अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती.
विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिल। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके. हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया. सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जाऍंगी. हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?
संधि की शर्ते तय होने लगीं. मोहसिन ने कहा—जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें. तुम हमार भिश्ती लेकर देखो.
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किए.
हामिद को इन शर्तो को मानने में कोई आपत्ति न थी. चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए. कितने खूबसूरत खिलौने हैं.
हामिद ने हारने वालों के ऑंसू पोंछे—मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबर करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले.
लेकिन मोहसनि की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता. चिमटे का सिल्का खूब बैठ गया है. चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है.
मोहसिन—लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?
महमूद—दुआ को लिय फिरते हो. उल्टे मार न पड़े. अम्मां जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?
हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की मां इतनी खुश न होगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी. तीन पैसों ही में तो उसे सब-कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयों पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी. फिर अब तो चिमटा रूस्तमें—हिन्द है ओर सभी खिलौनों का बादशाह.
रास्ते में महमूद को भूख लगी. उसके बाप ने केले खाने को दियें. महमून ने केवल हामिद को साझी बनाया. उसके अन्य मित्र मुंह ताकते रह गए. यह उस चिमटे का प्रसाद थां.

3

ग्यारह बजे गॉँव में हलचल मच गई. मेलेवाले आ गए. मोहसिन की छोटी बहन दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियॉं भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे. इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई. दानों खुब रोए. उसकी अम्मॉँ यह शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चॉँटे और लगाए.
मियॉँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ. वकील जमीन पर या ताक पर हो नहीं बैठ सकता. उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा. दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गई. उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया. पटरे पर कागज का कालीन बिदाया गया. वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे. नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया. आदालतों में खर की टट्टियॉँ और बिजली के पंखे रहते हैं. क्या यहॉँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जाएगी कि नहीं? बॉँस कापंखा आया ओर नूरे हवा करने लगें मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई.
अब रहा महमूद का सिपाही. उसे चटपट गॉँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें वह पालकी पर चलेगा. एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाए गए जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे. नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे. उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हैं. मगर रात तो अँधेरी होनी चाहिए, नूरे को ठोकर लग जाती है. टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियॉँ सिपाही अपनी बन्दूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टॉँग में विकार आ जाता है.
महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है. उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टॉँग को आनन-फानन जोड़ सकता है. केवल गूलर का दूध चाहिए. गूलर का दूध आता है. टाँग जावब दे देती है. शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है. अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है. एक टॉँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था. अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है. अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है. कभी-कभी देवता भी बन जाता है. उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है. अब उसका जितना रूपांतर चाहों, कर सकते हो. कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है.
अब मियॉँ हामिद का हाल सुनिए. अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी. सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी.
‘यह चिमटा कहॉं था?’
‘मैंने मोल लिया है.‘
‘कै पैसे में?
‘तीन पैसे दिये.‘
अमीना ने छाती पीट ली. यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया. लाया क्या, चिमटा! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?’
हामिद ने अपराधी-भाव से कहा—तुम्हारी उँगलियॉँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया.
बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता हे और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है. यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ. बच्चे में कितना व्याग, कितना सदभाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहॉँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही. अमीना का मन गदगद हो गया.
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई. हामिद कें इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था. बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई. वह रोने लगी. दामन फैलाकर हामिद को दुआऍं देती जाती थी और आँसूं की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी. हामिद इसका रहस्य क्या समझता!

________________________________प्रेमचंद की कहानी
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Saturday, August 9, 2008

ठाकुर का कुआँ

जोखू ने लोटा मुंह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई. गंगी से बोला-यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता. गला सूखा जा रहा है और तू सडा पानी पिलाए देती है!
गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी. कुआं दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था. कल वह पानी लायी, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी. जरुर कोई जानवर कुएं में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहां से?
ठाकुर के कुंए पर कौन चढ़नें देगा? दूर से लोग डॉँट बताऍगे. साहू का कुऑं गॉँव के उस सिरे पर है, परन्तु वहॉं कौन पानी भरने देगा? कोई कुऑं गॉँव में नहीं है.
जोखू कई दिन से बीमार हैं. कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला-अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता. ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूं.
गंगी ने पानी न दिया. खराब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी खराबी जाती रहती हैं. बोली-यह पानी कैसे पियोंगे? न जाने कौन जानवर मरा हैं. कुऍ से मै दूसरा पानी लाए देती हूँ.
जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा-पानी कहॉ से लाएगी?
ठाकुर और साहू के दो कुऍं तो हैं. क्यो एक लोटा पानी न भरन देंगे?
‘हाथ-पांव तुड़वा आएगी और कुछ न होगा. बैठ चुपके से. ब्राहम्ण देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक पांच लेगें. गराबी का दर्द कौन समझता हैं! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झॉँकनें नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है. ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगें?’
इन शब्दों में कड़वा सत्य था. गंगी क्या जवाब देती, किन्तु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया.
2

रात के नौ बजे थे. थके-मॉँदे मजदूर तो सो चुके थें, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पॉँच बेफिक्रे जमा थें मैदान में. बहादुरी का तो न जमाना रहा है, न मौका. कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं. कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक खास मुकदमे की नकल ले आए. नाजिर और मोहतिमिम, सभी कहते थें, नकल नहीं मिल सकती. कोई पचास मॉँगता, कोई सौ. यहॉ बे-पैसे-कौड़ी नकल उड़ा दी. काम करने ढ़ग चाहिए.
इसी समय गंगी कुऍ से पानी लेने पहुँची.
कुप्पी की धुँधली रोशनी कुऍं पर आ रही थी. गंगी जगत की आड़ मे बैठी मौके का इंतजार करने लगी. इस कुँए का पानी सारा गॉंव पीता हैं. किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते.
गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मजबूरियों पर चोटें करने लगा-हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊचें हैं? इसलिए किये लोग गले में तागा डाल लेते हैं? यहॉ तो जितने है, एक-से-एक छॅटे हैं. चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें. अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की भेड़ चुरा ली थी और बाद मे मारकर खा गया. इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है. यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते है. काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है. किस-किस बात मे हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे है, हम ऊँचे. कभी गॉँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं. जैसे सबकी छाती पर सॉँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!
कुऍं पर किसी के आने की आहट हुई. गंगी की छाती धक-धक करने लगी. कहीं देख ले तो गजब हो जाए. एक लात भी तो नीचे न पड़े. उसाने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अँधरे साए मे जा खड़ी हुई. कब इन लोगों को दया आती है किसी पर! बेचारे महगू को इतना मारा कि महीनो लहू थूकता रहा. इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी. इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं?
कुऍं पर स्त्रियाँ पानी भरने आयी थी. इनमें बात हो रही थीं.
‘खान खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओं. घड़े के लिए पैसे नहीं है.’
हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती हैं.’
‘हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते. बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं.’
‘लौडिंयॉँ नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पातीं? दस-पाँच रुपये भी छीन-झपटकर ले ही लेती हो. और लौडियॉं कैसी होती हैं!’
‘मत लजाओं, दीदी! छिन-भर आराम करने को ती तरसकर रह जाता है. इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती. ऊपर से वह एहसान मानता! यहॉं काम करते-करते मर जाओं, पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता.’
दानों पानी भरकर चली गई, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुऍं की जगत के पास आयी. बेफिक्रे चले गऐ थें. ठाकुर भी दरवाजा बंदर कर अंदर ऑंगन में सोने जा रहे थें. गंगी ने क्षणिक सुख की सॉस ली. किसी तरह मैदान तो साफ हुआ. अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ्-बूझकर न गया हो. गंगी दबे पॉँव कुऍं की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ.
उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला. दाऍं-बाऍं चौकनी दृष्टी से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सूराख कर रहा हो. अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं. अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुऍं में डाल दिया.
घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता. जरा-सी आवाज न हुई. गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे. घड़ा कुऍं के मुँह तक आ पहुँचा. कोई बड़ा शहजोर पहलवान भी इतनी तेजी से न खींच सकता था.
गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखें कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाजा खुल गया. शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा.
गंगी के हाथ रस्सी छूट गई. रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं.
ठाकुर कौन है, कौन है? पुकारते हुए कुऍं की तरफ जा रहे थें और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी.
घर पहुँचकर देखा कि लोटा मुंह से लगाए वही मैला गंदा पानी रहा है.

______________________ प्रेमचंद रचित कहानी
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Friday, August 8, 2008

कब्रिस्तान में पंचायत


यह शीर्षक कुछ चौंकानेवाला लग सकता है. पर मेरी मजबूरी है कि जिस घटना का बयान करने जा रहा हूँ, उसके लिए उसके सिवा कोई शीर्षक हो ही नहीं सकता. कब्रिस्तान वह जगह है जहाँ सारी पंचायतें खत्म हो जाती हैं. मुझे याद आता है कि रूसी कवयित्री अन्ना अख्मातोवा की एक युद्धकालीन कविता में बमबारी से ध्वस्त पीटर्सबर्ग (जो तब लेनिनग्राद कहलाता था) के बारे में एक तिलमिला देने वाली टिप्पणी है, जिसमें वे कहती हैं—‘‘इस समय शहर में अगर कहीं कोई ताज़गी है तो सिर्फ कब्रिस्तान की उस मिट्टी में, जो अभी-अभी खोदी गई है.’’ शब्द मुझे ठीक-ठीक याद नहीं. पर आशय यही है. कब्रिस्तान पर बहुत-सी कविताएँ लिखी गई हैं. पर अन्ना अख्मातोवा की यह पंक्ति शायद सब पर भारी पड़ती है. कब्रिस्तान का जो पक्ष मुझे सबसे ज्यादा दिलचस्प लगता है वह यह कि कई बार मृतकों के घर के आजूबाजू जिन्दा लोगों के भी घर होते हैं. जीवन और मृत्यु का यह विलक्षण सह-अस्तित्व सिर्फ एक कब्रिस्तान में ही दिखाई पड़ता है—जहाँ एक ओर नया गड्ढा खोदा जा रहा है तो दूसरी ओर बच्चे लुका-छिपी खेल रहे हैं.

मेरे अपने गाँव में मुसलमान परिवारों की संख्या ज्यादा नहीं है. सन् सैंतालीस से पहले कुछ अधिक परिवार थे. पर उसके बाद उनकी संख्या क्रमशः कम होती गई. वे कहाँ गए, इसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता. अब सिर्फ तीन-चार परिवार रह गए हैं और उनका यह छोटा-सा कब्रिस्तान है, जो गाँव के एक सिरे पर है. मुझे याद नहीं कि आधुनिक सुविधाओं से वंचित उस छोटे से गाँव में कभी कोई साम्प्रदायिक तनाव हुआ हो. हाँ, एक बात जरूर हुई है कि कब्रिस्तान की भूमि थोड़ी पहले से सिकुड़ गई है, जिसे चारों ओर से बाँस और नागफनी के जंगल ने ढँक लिया है. शायद यही कारण है कि वह छोडी़ हुई भूमि आबादी का हिस्सा बनने से बच गई.

पर सभी जगह ऐसा नहीं है. हम सब जानते हैं कि कब्रिस्तान की भूमि को लेकर छोटे-मोटे तनाव अक्सर होते रहते हैं. कई बार इसकी दुर्भाग्यपूर्ण परिणतियाँ भी देखी गई हैं. एक ऐसे ही अवसर पर होने वाली पंचायत में मुझे शामिल होना पड़ा था, जिसकी स्मृति मेरे जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण स्मृतियों में से एक है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिस छोटे-से टाउन में मैं प्राचार्य पद पर कार्य करता था, उसके आसपास के गाँवों में मुस्लिम आबादी अच्छी खासी थी. पर कुल मिलाकर बुद्ध की स्मृति की छाया में पलने वाला वह जनपद साम्प्रदायिक सौहार्द के लिहाज से काफी शान्त रहा है और किसी हद तक आज भी है. पर एक बार एक कस्बानुमा-गाँव में, जहाँ दोनों सम्प्रदायों की आबादी लगभग बराबर थी, एक छोटी-सी घटना घट गई. वह होली के आसपास का समय था, जब हवा में पकी हुई फसल की एक हल्की-सी गंध घुली रहती है. पर तनाव की प्रकृति शायद यह होती है कि वह कभी भी और कहीं से भी ज्यादा पैदा हो सकता है—फिर वह कब्रिस्तान की बंजर भूमि ही क्यों न हो. अचानक यह खबर फैली कि उस गाँव में दंगा हो गया है और आशंका थी कि वह पूरे इलाके में आग की लपट की तरह फैल न जाए. जिलाधिकारी ने समय रहते अपने पूरे पुलिस बल के साथ हस्तक्षेप किया और फसाद थम गया. पर सिर्फ वह थमा था, खत्म नहीं हुआ था. फिर जिलाधिकारी की पहल पर ही इलाके के कुछ प्रमुख लोगों को बुलाया गया, जिसमें महाविद्यालय का प्रिंसिपल होने के नाते मैं भी शामिल था. फिर पूरी टोली उस स्थान पर ले जाई गई, जहाँ से दंगा शुरू हुआ था. वह कब्रिस्तान की जमीन थी, जिसके एक किनारे पर दो-चार घर बने हुए थे और मवेशियों के लिए कुछ दोचारे भी.

वहाँ दोनों समुदाय के कुछ वरिष्ठ लोग बुलाए गए और तय हुआ कि समस्या का समाधान पंचायत के द्वारा निकाला जाएगा. जिलाधिकारी ने घोषित किया कि दोनों पक्ष के लोग एक-एक पंच मनोनीत करेंगे और दोनों मिलकर जो फैसला करेंगे, वह दोनों ही समुदायों को मान्य होगा. बहुसंख्यक समुदाय ने पहले निर्णय किया और फिर मुझे बताया गया कि वहाँ से मेरे नाम का प्रस्ताव किया गया है. अल्पसंख्यक समुदाय के निर्णय में थोड़ा समय लगा. पर अन्ततः उन्होंने भी एक फैसला कर लिया और उसे एक चिट पर लिखकर जिलाधिकारी की ओर बढ़ा दिया. उन्होंने चिट को खोला और फिर मेरी ओर बढ़े। बोले—अद्भुत निर्णय है, अल्पसंख्यक समुदाय ने भी आप ही को चुना है. जिलाधिकारी महोदय चकित थे, पर इसके पीछे जो संकेत था, उससे थोड़े आश्वस्त भी। चकित तो मैं भी था कि आखिर यह हुआ कैसे?

पर मेरी असली परीक्षा अब थी. जो दायित्व मुझे सौंपा गया था, उसके लिए मैं सक्षम हूँ, इसको लेकर सन्देह मेरे भीतर थे. मेरी सबसे बड़ी सीमा तो यही थी कि मैं उस तनाव के इतिहास और उसकी पृष्ठभूमि से बिल्कुल अपरिचित था. पर मेरे सौभाग्य से उस गाँव के प्रधान एक वृद्ध मुसलमान थे, जो पेशे से डॉक्टर थे और जिनकी शिक्षा-दीक्षा कश्मीर में हुई थी. मैं उनसे मिला और मेरे प्रति उस समुदाय ने जो विश्वास व्यक्त किया था, उसके लिए उसका शुक्रिया अदा किया. फिर रहा न गया तो पूछ ही लिया—‘‘आखिर आप लोगों ने यह कैसे समझा कि मैं आपके विश्वास का पात्र हूँ.’’ वह बोले—‘‘हम आपको नहीं जानते. पर हमारे लड़के जो आपके यहाँ पढ़ते हैं, उन्होंने आपके बारे में जो बता रखा था, यह फैसला उसी की बुनियाद पर किया गया.’’ मैं अवाक् था—और उस गुरुत्तर दायित्व के भार से दबा हुआ भी, जो अचानक मुझ पर डाल दिया गया था.

पर मेरी परेशानी को शायद डॉक्टर ने जान लिया. जैसा कि बता चुका हूँ, वे उस गाँव के प्रधान भी थे. वे मुझे कुछ दूर ले गए और सारे संघर्ष की कहानी बताई, जो संक्षेप में यह थी कि बहुसंख्यक समुदाय ने कब्रिस्तान की लगभग आधी जमीन पर कब्जा कर लिया है और यह काम एक दिन में नहीं, कोई चालीस-पचास वर्षों से धीरे-धीरे होता आ रहा था. फिर उन्होंने निष्कर्ष दिया—‘‘ज्यादती उनकी है, गलती हमारी.’’ मैंने पूछा, ‘‘गलती कौन-सी?’’ बोले—‘‘हमने कभी एतराज नहीं किया—इसलिए पचास साल बाद एतराज करना बिल्कुल बेमानी है.’’

मैंने पूछा, ‘‘फिर रास्ता क्या है?’’ वे कुछ देर सोचते रहे. फिर बोले—‘‘एक ही रास्ता है, जहाँ तक कब्जा हो चुका है, उसमें से कुछ गज जमीन हमें लौटा दी जाए, ताकि हमें लगे कि हमारी भावना का सम्मान किया गया. उसके बाद जो सीमा-रेखा तय हो, उस पर दीवार खड़ी कर दी जाए, जिसका खर्च दोनों पक्ष बर्दाश्त करें.’’

वृद्ध डॉक्टर का दिया हुआ फार्मूला मैंने सभा के सामने इस तरह रखा जैसे कि वह पंचायत का (यानी कि मेरा) फैसला हो. पर मेरा उसमें कुछ नहीं था. यह कहते हुए कि ‘दीवार खड़ी कर दी जाए’ मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं थोड़ा अटका था—क्योंकि मुझे एक ओर बड़ी लेकिन अदृश्य दीवार याद आ गई, जो देश के नक्शे में खड़ी कर दी गई थी. पंचायत ने फैसला दिया और उठ गई. यह कोई 25-26 साल पहले की बात है. मैं नहीं जानता उस दीवार का क्या हुआ ? शायद वह बनी हो और शायद उसे कुछ साल बाद तोड़ दिया गया हो—पर यही क्या कम है कि उसके बाद वहाँ से फिर किसी फसाद की खबर नहीं आई. मुझे जीवन में कई छोटे-बड़े सम्मान मिले हैं—हालाँकि मैं दावे के साथ नहीं कह सकता कि पुरस्कार को ठीक-ठाक ‘सम्मान’ कहा जा सकता है या नहीं. पर कैसी विडम्बना है कि मुझे जीवन का सबसे बड़ा ‘पुरस्कार’ एक कब्रिस्तान में मिला था, जिसके बारे में सोचकर मेरा माथा कृतज्ञता से झुक जाता है.

केदारनाथ सिंह, कब्रिस्तान में पंचायत का एक अंश साभार
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Thursday, August 7, 2008

राजेश जोशी की कुछ पंक्तियाँ


सबसे बड़ा अपराध है इस समय
निहत्थे और निरपराध होना
जो अपराधी नहीं होंगे
मारे जायेंगे.

*****

जब तक मैं एक अपील लिखता हूँ
आग लग चुकी होती है सारे शहर में
हिज्जे ठीक करता हूँ जब तक अपील के
कर्फ्यू का ऐलान करती घूमने लगती है गाड़ी
अपील छपने जाती है जबतक प्रेस में
दुकानें जल चुकी होती हैं
मारे जा चुके होते हैं लोग
छपकर जबतक आती है अपील
अपील की ज़रूरत ख़त्म हो चुकी होती है.

*****

स्वर्ग में सबसे खतरनाक चीज़ है
कल्पवृक्ष
कहा जाता है कि मन उठते ही कोई भी इच्छा
पूरी कर डालता है वह तत्काल
लोगों का कहना है
स्वर्ग में समृद्धि है बहुत
मगर ऊब वहाँ भी किसी का पीछा नहीं छोड़ती.

*****

कई बार जब बाज़ार चीज़ों से लद जाते हैं
समाज में पैदा होने लगते हैं
नए-नए उपद्रव
चीज़ें एक दिन इतनी ताकतवर हो जाती हैं
कि बनती जाती है इनकी स्वतंत्र सत्ता
तब आदमी नहीं, चीज़ें तय करने लगती हैं
आदमी का भाग्य.

*****

यह समय सूचनाओं का समय है
सूचनाओं में तब्दील हो रहा है ज्ञान
यहाँ तक कि
सच भी अब सिर्फ़ एक सूचना है.

*****

बदल जायें, बदल जायें लोगों के चेहरे
जब वे मेरी कविता में आयें
हीरे की तरह चमकती हुई दिखें लोगों की
बहुत छोटी-छोटी अच्छाइयाँ
कि आत्महत्या करता आदमी पलटकर लौट पड़े
जीवन की ओर चिल्लाता हुआ
कुछ नहीं है जीवन से ज़्यादा सुन्दर
जीवन से प्यारा जीवन की तरह अमर.

*****

सबको चकमा देकर एक रात
मैं किसी स्वप्न की पीठ पर बैठकर उड़ जाऊँगा

*****

मकान मालिक परेशान है
और आंगन में टहल रहा है, देख रहा है
पीपल और बड़ा हो गया है
पूजा के लिए उसके आसपास
इकट्ठे होने लगे हैं
मोहल्ले के लोग
मकान एक सार्वजनिक स्थल बनता जा रहा है
पर वह किसी को भी
रोक नहीं पा रहा है
क्योंकि यह धर्म के विरूद्ध है.

*****

वह टालेगा समकालीनों पर
नहीं देगा अपनी राय
विदेशी कवियों के बारे में बतियाएगा
हरवक्त.

*****

चीन की एक नीति कथा कहती है
कि दाँत इसलिए गिर जाते हैं
कि वे सख़्त होते हैं
कि जीभ नरम होती है इसलिए
बनी रहती है उम्र भर.

*****

तुमने देखा है कभी
बेटी के जाने के बाद का कोई घर?
जैसे बिना चिड़ियों की सुबह
जैसे बिना तारों का आकाश
बेटी इतनी एक-सी होती है
कि एक बेटी में दिखती है दूसरे को अपनी
बेटी की शक्ल.

*****

जैसे-जैसे बढ़ती जाती है उम्र
छोटी हो रही है उम्र
देहरी पर खड़ा जाने आने को होता है कोई स्वप्न
कि आधी रात अधबीच ही खुल जाती है नींद
जो मेरी नींद में आने को ही निकला था वो स्वप्न
न जाने कहाँ किन सड़कों पर भटक रहा होगा इस वक्त.

*****

चाँद ने जाने क्या कहा झरने से
कि झरना हँसा रात भर
रात भर सारी घाटी में गूँजी
उसकी हँसी.
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Wednesday, August 6, 2008

हरिराम-गुरू संवाद


(1) गुरु : तुम्हारा जीवन बर्बाद हो गया हरिराम!
हरिराम : कैसे गुरुदेव?
गुरु : तुम जीभी चलाना न सीख सके!
हरिराम : पर मुझे तलवार चलाना आता है गुरुदेव!
गुरु : तलवार से गरदन कटती है, पर जीभ से पूरा मनुष्य कट जाता है.


(2) गुरु : हरिराम, भीड़ में घुसकर तमाशा देखा करो.
हरिराम : क्यों गुरुदेव?
गुरु : इसलिए की भीड़ में घुसकर तमाशा न देख सके तो खुद तमाशा बन जाओगे!


(3) हरिराम : क्रांति क्या है गुरुदेव?
गुरु : क्रांति एक चिड़िया है हरिराम!
हरिराम : वह कहां रहती है गुरुदेव!
गुरु : चतुर लोगों की ज़ुबान पर और सरल लोगों के दिलों में.
हरिराम : चतुर लोग उसका क्या करते हैं?
गुरु : चतुर लोग उसकी प्रशंसा करते हैं, उसके गीत गाते हैं और समय आने पर उसे चबा जाते हैं.
हरिराम : और सरल लोग उसका क्या करते हैं?
गुरु : वह उनके हाथ कभी नहीं आती.

(4) हरिराम : गुरुदेव, अगर एक हड्डी के लिए दो भूखे कुत्ते लड़ रहे हों तो उन्हें देखकर एक सरल आदमी क्या करेगा?
गुरु : बीच-बचाव कराएगा.
हरिराम : और चतुर आदमी क्या करेगा?
गुरु : हड्डी लेकर भाग जाएगा.
हरिराम : और राजनीतिज्ञ क्या करेगा?
गुरु : दो भूखे कुत्ते वहां और छोड़ देगा.

(5) हरिराम : आदमी क्या है गुरुदेव?
गुरु : यह एक प्रकार का जानवर है हरिराम!
हरिराम : यह जानवर क्या करता है गुरुदेव?
गुरु : यह विचारों का निर्माण करता है.
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर विचारों के महल बनाता है.
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर उनमें विचरता है.
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर विचारों को खा जाता है.
हरिराम : फिर क्या करता है?
गुरु : फिर नए विचारों का निर्माण करता है.

(6) हरिराम : संसार क्या है गुरुदेव?
गुरु : एक चारागाह है हरिराम!
हरिराम : उसमें कौन चरता है?
गुरु : वही चरता है जिसके आंखें होती हैं.
हरिराम : आंखें किसके होती हैं गुरुदेव?
गुरु : जिसके जीभ होती है.
हरिराम : जीभ किसके होती है गुरुदेव?
गुरु : जिसके पास बुद्धि होती है.
हरिराम : बुद्धि किसके पास होती है गुरुदेव?
गुरु : जिसके पास दुम होती है.
हरिराम : दुम किसके पास होती है गुरुदेव?
गुरु : जिसे दुम की इच्छा होती है.


(7) गुरु : हरिराम, बताओ सफलता का क्या रहस्य है?
हरिराम : कड़ी मेहनत गुरुदेव!
गुरु : नहीं.
हरिराम : बुद्धिमानी?
गुरु : नहीं.
हरिराम : ईमानदारी?
गुरु : नहीं.
हरिराम : प्रेम?
गुरु : नहीं.
हरिराम : फिर सफलता का क्या रहस्य है गुरुदेव?
गुरु : असफलता.

(8) हरिराम : गुरुदेव, अगर एक सुंदर स्त्री के पीछे दो प्रेमी लड़ रहे हों तो स्त्री को क्या करना चाहिए?
गुरु : तीसरे प्रेमी की तलाश.
हरिराम : क्यों गुरुदेव?
गुरु : इसलिए कि स्त्री के पीछे लड़ने वाले प्रेमी नहीं हो सकते.

(9) हरिराम : सबसे बड़ा दर्शन क्या है गुरुदेव?
गुरु : हरिराम, सबसे बड़ा दर्शन चाटुकारिता है.
हरिराम : कैसे गुरुदेव?
गुरु : इस तरह कि चाटुकार बड़े-से-बड़े दर्शन को चाट जाता है.

(10) हरिराम : ईमानदारी क्या है गुरुदेव?
गुरु : यह एक भयानक जानलेवा बीमारी का नाम है.
हरिराम : क्या ये बीमारी हमारे देश में भी होती है?
गुरु : हरिराम, बहुत पहले प्लेग, टी.बी. और हैजे की तरह इसका भी कोई इलाज न था. तब ये हमारे देश में फैलती थी और लाखों लोगों को चट कर जाती थी.
हरिराम : और अब गुरुदेव?
गुरु : अब उस दवा का पता चल गया है, जिसके कारण यह बीमारी रोकी जा सकती है.
हरिराम : उस दवा का क्या नाम है गुरुदेव?
गुरु : आज बच्चे-बच्चे की जुबान पर उस दवा का नाम है लालच.


------------------------------असगर वज़ाहत, साभार
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Monday, August 4, 2008

गुलाबी चूड़ियाँ


प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,

सात साल की बच्ची का पिता तो है!

सामने गियर से उपर

हुक से लटका रक्खी हैं

काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी

बस की रफ़्तार के मुताबिक

हिलती रहती हैं…

झुककर मैंने पूछ लिया

खा गया मानो झटका

अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा

आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब

लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया

टाँगे हुए है कई दिनों से

अपनी अमानत

यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने

मैं भी सोचता हूँ

क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ

किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?

और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा

और मैंने एक नज़र उसे देखा

छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में

तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर

और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर

और मैंने झुककर कहा -

हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ

वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे

वर्ना किसे नहीं भाएँगी?

नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!

--------------------------नागार्जुन
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Friday, August 1, 2008

गुंग महल


खुली बहसों को दावत देना
रवादार शाहंशाहों को भी परेशानी में डाल देता था

हिजरी 987-88 के दौरान दीवान-ए-ख़ास में
जब इस बात पर मुबाहिसा हुआ
कि ख़ुदावंद की बनाई सबसे उम्दा शय अशरफ़-उल-मख़लूकात
आदमज़ाद की वाहिद पैदाइशी मुक़द्दस ज़ुबान क्या थी
तो काज़ी और उलमा इस पर यकराय थे
कि अल्लाह की ज़ुबान अरबी है
जिसमें उसने कुन् कहकर कायनात को वज़ूद बख़्शा
और किताब-उल-मुबीन को नबी पर तारी किया
उधर ब्राह्मण और दूसरे दरबारी सवर्ण
पूरी भयभीत विनम्रता किन्तु क्षमायाचना-भरी दृढ़ता से कहते रहे
कि वेद जो सृष्टि के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं और ईश्वर-विरचित ही हैं
चूँकि संस्कृत में हैं जिसे नाम ही देवभाषा का दिया गया है
अतएव इस पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है
कि परब्रह्म किस वाणी में बोलता है
मंद स्वर में उन्होने पाणिनी का भी उल्लेख किया

अनपढ़ होने के बावज़ूद
आक़-ए-ज़ीशान जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर
एक ऐसा बादशाह था जिसे चीज़ों के तज़्रिबे करने
और उन्हे सही या बातिल साबित करने में बेदार दिलचस्पी थी
चुना उसने बीस हामिला हिन्दू मुसलमान औरतों को
जो कमोबेश एक ही वक्त में माँ बनने वाली थीं
और ज़च्चगी के फौरन बाद भेज दिया फ़कत उनकी औलादों को
उस महल में जिसे आगरे में दूर नीम-बियाबान में
ख़ास इसी मक़सद से आनन-फ़ानन में बनवाया गया था
जहाँ सिर्फ़ धायें थीं और आयाएँ और चंद दूसरे अहलकार औरत-मर्द
जिन सबको हुक्म था कि उनके मुँह पर पट्टी रहेगी
वे पालेंगे इन बच्चों को लेकिन उनसे और आपस में क़तई बोलेंगे नहीं
वर्ना उनकी ज़ुबान क़लम कर ली जाएगी
और उस महल में जो दूसरे कारिंदे आएँगे वे भी अपना मुँह बन्द रखेंगे

मुआवज़े दिए गए थे इन बच्चों के वास्ते
या इन्हें निज़ाम के काम से तलब कर लिया गया था
यह पता नहीं चलता
यही बताया गया है
कि ज़िल्ले-इलाही जानना चाहते थे कि ये बच्चे
जब बोलने लायक होंगे तो कौन सी ज़ुबान बोलते पाए जाएँगे
अरबी संस्कृत या कोई और

महीने बीत गए तीन-चार बरस भी
कि आलमपनाह को फ़तहपुर से दूर उस महल की याद आई
जिसकी बेज़ुबान ख़ामोशी की वजह से आसपास के काश्तकारों गूजरों ने
उसे नाम दे दिया था गुंग महल

10 अगस्त 1582 को गया बादशाह
अपने बहस करने वाले दरबारियों के साथ उस इमारत तक
जहाँ अब भी गूँगे बने हुए औरत मर्द पाल रहे थे बच्चों को
इन बरसों में मुँह पर पट्टी बाँधे कारकून
लाए थे रसद तनख़्वाहें और बाक़ी साज़-ओ-सामान

चुप्पी तुड़वाई अकबर ने अड़तीस महीनों की और हुक्म दिया औरतों को
जिनके गलों की नसें तक जड़ हो चुकी थीं
और जो अब ख़ुद सिर्फ़ इशारों में बात कर सकती थीं
कि बच्चों को हाज़िर किया जाए

आलीजाह मुल्लाओं पण्डितों आलिमों के सामने
पेश किए गए बीस बच्चे
जो बेहद सहमे हुए थे
ऐसे और इतने इन्सान उन्होंने कभी देखे न थे
लेकिन कहा महाबली ने मुस्कराकर उनसे अरबी में :
बोलो

घबराकर पीछे हटने लगे बच्चे
तब शहंशाह ने पुचकार कर एक से संस्कृत में बोलने को कहा
इशारा पाकर सभी उलेमा और पुजारी
हौसला बढ़ाने लगे बच्चों का अलग-अलग दोनों भाषाओं में

जो गुंगियाने लगे पीछे हटते हुए
कुछ कुत्तों सियारों भेड़ियों की तरह रोने लगे
कुछ नर्राने लगे दूसरे जानवरों परिन्दों की मानिंद

बादशाह ने तब उनसे तुर्की दक़नी उर्दू ब्रज कौरवी सबमें कहा बोलने को
पचास दरबारी और ज़ुबानों में इसरार करते रहे उनसे

अब बच्चों की आँखें निकल आई थीं
उनके काँपते बदन ऐंठ रहे थे वे मुँह से झाग निकालने लगे
कुछ ने दहशत में पेशाब और पाख़ाना कर दिया
फिर वे दीवार के सहारे दुबक गए एक कोने में पिल्लों की तरह
और उनके मुँह से ऐसी आवाज़ें निकलने लगीं
जो इंसानों ने कभी इंसान की औलाद से सुनी न थीं

थर्रा गया अकबर इसके मायने समझकर
कलेजा उसके मुँह में आ गया
वह यह तो कहता था कि दुनिया में पैग़म्बर अनपढ़ हुए हैं
चुनान्चे हर ख़ान्दान में एक लड़का उसी तरह उम्मी छोड़ा जा सकता है
लेकिन बच्चों को इस तरह गूँगा देखने का माद्दा उसमें न था
उसने चीख़ कर हुक्म दिया बोलना शुरू हो यहाँ बेख़ौफ और मनचाहा
सौंप दो इन बच्चों को इनके वाल्दैन सरपरस्तों को
फ़ौरन ख़ाली करो इस मनहूस महल को
आइंदा यहाँ ऐसा कुछ न हो

यह पता नहीं चलता है
कि उन बच्चों के कोई अपने बचे भी थे या नहीं
उन बीस माजूरों को किस किसने पहचाना और अपनाया
उन्हे कभी कोई ज़ुबानें आई भी या नहीं
वे अपने घर बसा पाए या नहीं

चुन दिए गए गुंग महल के सभी रोशनदान खिड़की दरवाज़े
आसपास के गाँवों में अफ़वाह फैल गई
कि उसके भीतर से अब भी गूँगों की
जानवरों जैसी आवाज़ें आती हैं
धीरे धीरे ढह गया गुंग महल
कुछ बरसों तक रहे खण्हर में सियार लोमड़ियाँ और चमगादड़ें
आगरा के पास की इस शाही तज़िबागाह का तो क्या
उस फ़ैज़ाबाद का भी कोई नामोनिशान नहीं मिलता
जहाँ एक दिन पहले बादशाह सलामत ने मक़ाम फ़र्माया था

अकबरनामा में उस रात ज़िल्ले-इलाही की
तहज्जुद की नमाज़ की यह दुआ भी दर्ज़ नहीं है
कि कभार मैं तेरे नबी को लेकर हँस लेता था
लेकिन मेरे अल्लाह मेरा यह आज़मूदा कुफ़्र भी माफ़ कर
कि ख़ुदाई ज़ुबान जैसी कोई चीज़ नहीं है

वह शायद इसलिए कि जब अकबर ने यह फ़रियाद की
तो उसके बहुत कुछ जान चुके ज़ेहन का एक कोना
एक नए ख़ौफ़ के मारे हमेशा के लिए गूँगा हो चुका था


--------विष्णु खरे, काल और अवधि के दरमियान, साभार
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