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सिविल सेवा परीक्षा संबंधी

भारतेन्दु हरिश्चंद

1.सब गुरूजन को बुरो बतावै
अपनी खिचड़ी अलग पकावै,
भीतर तत्व न झूठी तेजी
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेजी.
2.
तीन बुलाए तेरह आवै
निज निज बिपता रोई सुनावै,
आँखौ फूटे भरा न पेट
क्यों सखि सज्जन नहिं ग्रैजुएट.
3.
सुंदर बानी कहि समुझावै
बिधवागन सों नेह बढ़ावै,
दयानिधान परम गुन-सागर
सखि सज्जन नहिं विद्यासागर.
4.
सीटी देकर पास बुलावै
रूपया ले तो निकट बिठावै,
ले भागै मोहि खेलहि खेल
क्यों सखि सज्ज्न नहिं सखि रेल.
5.
धन लेकर कुछ काम न आव
ऊँची नीची राह दिखाव,
समय पड़ै पर सीधै गुंगी
क्यों सखि सज्ज्न नहिं सखि चुंगी.
6.
रूप दिखावत सरबस लूटै
फंदे मैं जो पड़ै न छूटै,
कपट कटारी जिय मैं हुलिस
क्यों सखि सज्ज्न नहिं सखि पुलिस.
7.
भीतर भीतर सब रस चूसै
हँसि हँसि कै तन मन धन मूसै,
जाहिर बातन मैं अति तेज
क्यों सखि सज्जन नहिं अँगरेज.
8.
एक गरभ मैं सौ सौ पूत
जनमावै ऐसा मजबूत,
करै खटाखट काम सयाना
सखि सज्जन नहिं छापाखाना.
9.
नई नई नित तान सुनावै
अपने जाल में जगत फँसावै,
नित नित हमैं करै बल-सून
क्यों सखि सज्जन नहिं कानून.
10.
इनकी उनकी खिदमत करो
रूपया देते देते मरो,
तब आवै मोहिं करन खराब
क्यों सखि सज्जन नहिं खिताब.
11.
मूँह जब लागै तब नहिं छूटै
जाति मान धन सब कुछ लूटै,
पागल करि मोहिं करै खराब
क्यों सखि सज्जन नहिं सराब.

तमस Online

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Sunday, June 15, 2008

रजनी-दिन नित्य चला ही किया


गुरुवर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अनेक विधाओं में रचना की है. उनका कवि रूप अपेक्षाकृत अल्पज्ञात है. उनकी कोई कविता किसी पत्रिका में प्रकाशित मैंने नहीं देखी है. ‘कवि’ (संपादक:विष्णुचंद्र शर्मा) में उन्होंने भवानीप्रसाद मिश्र की कविताओं पर अपने विचार कविता के रूप में प्रकट किये थे. वह कविता में लिखी हुई आलोचना है. हलके मूड में कभी-कभी वे अपनी कविताएँ सुनाते थे. उनके शिष्यों ने भी उनकी कविताओं को गंभीरता से नहीं लिया. डॉ. नामवर सिंह ने ‘आलोचना’ का संपादन शुरू किया तो द्विवेदी जी उनसे मज़ाक में कहते-‘‘मैंने भी कविताएँ लिखी हैं. मुझसे क्यों नहीं माँगते?’’ एक बार डॉ. नित्यानंद तिवारी और हम साथ-साथ बैठे थे. पंडित जी ने नामवर जी से कहा-‘‘मेरी कविताएँ ‘आलोचना’ में क्यों नहीं छापते?’’ मैंने कहा-‘‘नामवर जी, इतनी खराब कविताएं आप छापते हैं, पंडित जी की कविताएँ भी छाप दीजिए.’’ आचार्यश्री ने अट्टाहस किया. वत्सल एवं कृत्रिम क्रोध में कहा-‘‘मेरी कविताएँ अच्छी हैं, उनकी बुराई मत करो.’’ बाद में नित्यानंद जी ने आश्चर्यपूर्वक पूछा-‘‘आप द्विवेदी जी से ऐसी बात कर लेते हैं!’’
लेकिन एक बार भोपाल में ‘इप्टा’ के एक युवक गायक से पंडित जी की एक कविता सुनकर मैं चकित रह गया. कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं-
रजनी-दिन नित्य चला ही किया मैं अनंत की गोद में खेला हुआ
चिरकाल न वास कहीं भी किया किसी आँधी से नित्य धकेला हुआ
न थका न रुका न हटा न झुका किसी फक्कड़ बाबा का चेला हुआ
मद चूता रहा तन मस्त बना अलबेला मैं ऐसा अकेला हुआ। ‘इप्टा’ (भारतीय जन नाट्य मंच) के किशोर गायक ने इस गीत को ऐसी लय में बाँधा कि इस कविता में मुझे नया अर्थ मिला. मुझे याद पड़ता है कि गायक गुहा नियोगी थे जो किसी कॉलेज में अंग्रेज़ी के अध्यापक, कवि और प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यकर्त्ता हैं. छंद सवैया है किन्तु मध्यकालीन स्वर सन्निधि से उत्पन्न शब्द-मैत्री बिलकुल टूटी है. लगता है, रीति को भावनाओं की धकापेल ने तोड़-फोड़ दिया है. सवैया में ‘फक्कड़ बाबा का चेला हुआ’ और किसी आँधी से नित्य धकेला हुआ बिलकुल नया स्वर है. यह विनोद का नहीं, अनुभव की तीव्रता का अदमित स्वर है जो सिर्फ पुरानी सवैया रीति को तोड़ ही नहीं रहा है, एक नई लय का प्रवर्तन कर रहा है. यह खड़खड़ाहट वीररसात्मक सवैयों की कड़कड़ाहट या गर्जना नहीं है, वैयक्तिकता का नया स्वर है. नरेन्द्र शर्मा, बच्चन, अंचल से भिन्न.
किन्तु कवि हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस रौ में कविताएँ नहीं लिखीं. लिखीं भी तो यह अनगढ़पन एकाध विनोदपरक कविताओं में ही दिखलाई पड़ा-उनका विनोद प्रायः आत्म-व्यंग्य के रूप में आता था-

जोरि जोरि अच्छर निचोरि चोरि औरन सों सरस कबित नवराग कौ गढ़ैया हौं,
पंडित प्रसिद्ध पंडिताई बिना जानै कछू तीसकम बत्तिसेक वेद को पढ़ैया हौं.
टाँय टाँय जानौं, कूकि कूकि पहिचानौं तत्त्व चिकिर चिकिर करि सुर कौ चढ़ैया हौं,
भाइयो भगिनि यो बताइए विचारि आजु शुक बनौं पिक बनौं कि गौरैया हौं.
तीसकम बत्तिसेक-तीस कम बत्तीस में (३२-३०=२) दो वेद पढ़ने वाला यानी द्विवेदी. तीसरी और चौथी पंक्ति में यथा क्रमत्व है-‘टाँय टाँय’ शुक की बोली, ‘कूकि कूकि’ कोयल की और चिकिर चिकिर गौरैया की है. कवित्त में रीतिकालीन विदग्धता मौजूद है. सिर्फ आत्म-हास और उसकी खड़खड़ाहट नई है. इसे भी फक्कड़पन के ही अंतर्गत समझना चाहिए.
इस रौ में पंडित जी ने और कविताएँ भी लिखी होंगी. एक कविता तो मैंने सुनी है. पंजाब विश्वाविद्यालय से 60 वर्ष में सेवा निवृत्त होने पर लिखी थी. उसमें ‘खूब बना रस छका’ और ‘व्योमकेश दरवेश चलो अब’ जैसे टुकड़े थे. ‘बनारस में श्लेष और व्योमकेश की दरवेशी।’ फक्कड़पन की बात.
द्विवेदी जी मूलतः जीवन की विसंगतियों, अनिश्चय, अस्थिरता आदि से अत्याधिक संवेदित, उद्वेलित होते थे. जीवन संघर्ष-संकुल था. निम्न-मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार में जन्म, अभावग्रस्त सुविधावंचित विद्यार्थी-जीवन, पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, यश-सम्मान के साथ-साथ काशी-निष्कासन भी. काशी से शांतिनिकेतन, शांतिनिकेतन से काशी, काशी से चंडीगढ़, चंढ़ीगढ़ से फिर काशी और काशी से फिर लखनऊ. सो फक्कड़पन जीवनदृष्टि भी थी, अपने को सँभालने का आश्वसान भी था-
रजनी-दिन नित्य चला ही किया मैं अनंत की गोद में खेला हुआ
चिरकाल न वास कहीं भी किया किसी आँधी से नित्य धकेला हुआ. द्विवेदी जी ने एक कविता देवेन्द्र सत्यार्थी पर लिखी है. भोजपुरी लोकगान की तर्ज पर. देवेन्द्र सत्यार्थी लोकगीतों को एकत्र करते थे अकेले घूम-घूमकर. यह फक्कड़पन का काम था, इसीलिए द्विवेदी जी को पसंद था-

पउलों तोरी चिठिया, बजवलों बधौआ कि सत्यार्थी भइया रे
तोरी डगर अकेल की सत्यार्थी भइया रे
लोकगान के संग्रही कविवर रामनरेश त्रिपाठी से भी पंडित जी की पटती थी. फक्कड़पन से कबीर की याद आना स्वाभाविक है. कबीर को यह विशेषण द्विवेदी जी ने ही दिया है. इस फक्कड़पन से गहरी, आंतरिक यातना छिप जाती है. कबीर का समाधान विषय था. लोग जलते हैं तो जलाशय में जाकर आग बुझाते हैं. कबीर की समस्या विषम थी. जलाशय उनकी आग बुझाने के बदले स्वयं जलने लगता था.

मों देख्याँ जलहर जलै संतो कहाँ बुझाऊँ. यह फक्कड़पन महँगा सौदा है. यह घरफूँक मस्ती है. जो दुनिया अपनी नहीं है, अपनी नहीं हो सकती, उसे फूँक देने, उसे त्याग देने से निश्चिंचतता आती है. बहुत कुछ पूस की रात के हरखू की फसल जलकर राख हो जाने के बाद वाली निश्चिंचतता. द्विवेदी जी के छत-फोड़ अट्टाहस का संबंध उसी से है. द्विवेदी जी को ऐसा फक्कड़पन जिसमें भी दिखता था, आत्मीयता की अनुभूति होती थी. उनके उपन्यासों, निबंधों में ऐसे फक्कड़ चरित्र और जीव बिखरे पड़े हैं. सीदी, मौला, अघोर, भैरव, कुटज, शिरीष आदि इसी तरह के है. द्विवेदी जी का बहुप्रयुक्त पदबंध, ‘दलित द्राक्षा के समान, सब कुछ लुटा देने की क्षमता’ का संबंध भी उनके फक्कड़पन से है. इस फक्कड़पन स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने वाला समाज ही अपने अंदर पैदा कर सकता था-या किसी आदर्श के लिए सब कुछ लुटाकर सुख पाने वाली साधना, जैसे कि भक्ति की साधना। द्विवेदी जी स्वाधीनता आंदोलन के दौर से कबीर-प्रेमी थे.
ब्रजभाषा की कविताएँ बहुत कुछ रीतिमुक्त कवियों के ढर्रे की हैं, जिनमें स्वदेश-प्रेम और सामाजिक रूढ़ियों से संतप्त जनों के प्रति कवि की करुणा बही है. प्रेमपरक कविताओं में प्रेम के उदात्त पक्ष का चित्रण और प्रेम के नाम पर ओछे आचरण करने वालों का तिरस्कार किया गया है. विषय राधा-रानी और मनमोहन है, किन्तु प्रेम का यह दृष्टिकोण वही है जो आगे चलकर बाणभट्ट की आत्मकथा और अन्य उपन्यासों में मिलता है-ऐसा प्रेम जो मानव-जीवन को सार्थक कर देता है, मनुष्य को जड़ता से मुक्त करके उच्च भूमि पर स्थित कर देता है.
प्रिय को सामने पाकर संकोच हो आना सच्चे प्रेमी का स्वभाव है. लम्पट प्रेम का प्रदर्शन तो करते ही हैं अवसर भी नहीं चूकते. हिन्दी कविता में संकोच-आचरण प्रायः नारियों द्वारा चित्रित किया गया है. द्विवेदी जी ने श्रृंगारपरक कविताओं में ऐसी सलज्ज संकोचपूर्ण स्थितियों का चित्रण और उसके कारण मन की हूक का मार्मिक चित्रण किया है-

आगे खरौ लखि नंद कौ लाल हमने सखि पैंड तजे री
कुंजन ओट चली सचुपाइ (सकुचाई?) उपाइ लगाइ तहौं तिन घेरी
मैं निदरे सखि रूप अनूपन कान्हर हू पर आँखि तरेरी
पै परी फास अरी मुसुकानि की प्रान बचाइ न लाख बचे री.
यह अनुभाव-सरणि बिहारी की तर्ज पर है. द्विवेदी जी रीतिकालीन कविताओं को सिर्फ दरबारी नहीं मानते थे. वे रीतिकालीन कविताओं में लोक-जीवन का चित्रण भी पाते थे. प्रेम-व्यापार सिर्फ सामंतों के जीवन में नहीं होता, लोक सामान्य जीवन में प्रेम मन के स्वास्थ्य और जीवन की स्वाभाविकता का परिचायक है. द्विवेदी जी की ब्रजभाषा में रचित श्रृंगारी कविताएँ ज्यादातर इसी तरह की हैं.
द्विवेदी जी की कविताओं में, उनके निबंधों की ही भाँति, सर्वत्र एक विनोद-भाव मिलता है. गंभीर चिंतन और व्यापक अध्ययन को सहज तौर पर हलके-फुलके ढंग से पाठक श्रोता पर बोझ डाले बिना प्रकट करना उनके व्यक्तित्व और लेखक की विशेषता और क्षमता है. इस विशेषता और क्षमता का संबंध भी फक्कड़पन से ही है. द्विवेदी जी लोकवादी विशेषण को पसंद नहीं करते थे, क्योंकि वे लोकवाद का संस्कृत में क्या अर्थ होता है, समझते थे. लेकिन वे महत्व सबसे अधिक लोक को देते थे. वे बोलियों, लोक-साहित्य, लोकधुनों और जन-प्रचलित लोक-साहित्य-रूपों पर अतीव गंभीरता से विचार करते थे. एक दलित जाति का प्रचलित गीत है-‘करौ जिन जारी हे गिरवरधारी’. यह गीत चमड़े का काम करने वाली दलित जाति एक विशेष लय में गाती है. पंडित जी पहले इस पंक्ति को उसी लय में गाते, फिर वैदिक मंत्र उसी लय में. निष्कर्ष प्रस्तुत करते कि चमार जाति की इस गीत-लय में वेद-पाठ की लय सुरक्षित है. लोकगान की परंपरा में.
सो गंभीर कथ्य को विनोद भाव से प्रस्तुत करने की भी धुनें हैं. उनमें एक प्रसिद्ध धुन नज़ीर अकबरवादी ने प्रयुक्त की है- ‘क्या-क्या कहूँ मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन’.
अब द्विवेदी जी की यह कविता पढ़िए-
काली घटा बढ़ती चली आती है गगन पर,
झुक झूम-झूम पेड़ हैं अलमस्त मगन, पर-
साहित्य का सेवक किसी मसले में है उलझा,
सुलझाना चाहता है पै पाता नहीं सुलझा.
ऐसे ही समय आके कोई डाकिया हरिहर,
‘पंडित जी’ कह पुकार उठा रूम के बाहर.
बुकपोस्ट के बंडल हैं कई, पाँच-सात-दस
इन पोथों में शायद ही हो रस का दरस-परस.
फिर एक-एक को समालोचक है खोलता,
कुंचन ललाट पर है और होठ डोलता.
‘उँह मारिए गोली, वही अनुरोध लेख का,
कुछ देख-रेख का तथा कुछ मीन-मेष का.’
फिर खोलता है एक सुविख्यात-सा परचा,
सर्वत्र धूम जिसकी है सर्वत्र ही चरचा.

पहला ही पृष्ठ देख के कुछ उन्मना हुआ,
दो-चार और देख के दिल चुनमुना हुआ.
फिर एक पृष्ठ और, हाथ माथे पै गया!
आँखें गईं पथरा जो पृष्ठ खोले है नया!
पढ़-पढ़ के ले रहा है उसाँसें हज़ारहा,
आकाश मगर शान से बरसे ही जा रहा.
पारे का सा दरियाव चहुँ ओर उछलता,
बच्चों का दल उसे है लूटने को मचलता.
टूप-टाप टूप-टाप टूप-टाप टूप-टाप,
बच्चे क्या, मचल जाएँ जो बच्चों के बड़े बाप.....
इस कविता की शब्दावली पर गौर कीजिए. कविता 1940 के आसपास लिखी गई होगी. 1950 से पहले तो निश्चित। द्विवेदी जी ने 1950 में शांति निकेतन छोड़ दिया था. संवेदना गैररोमांटिक है और शब्दावली रोज़मर्रा की. पात्र कल्पित नहीं. डाकिया हरिहर है. ‘पंडित जी कह पुकार उठा रूम के बाहर’. बुकपोस्ट में पाँच, सात, दस बंडल हैं-साहित्य की पोथियों के. किन्तु-‘इन पोथों में शायद ही हो रहा रस का दरस-परस.’ उधर आकाश शाम से बरसे जा रहा है. चहुँ ओर पारे का गरियाव उछल रहा है, इस उपमा पर गौर कीजिए. बरसात की बूँदों के लिए अछूती है. और नाद बिंब की यह आवृत्ति जो कविता की एक पूरी पंक्ति बन जाती है-टूप-टाप, टूप-टाप, टूप-टाप, टूप-टाप’.
अनौपचारिक वार्तालाप यानी बतरस का मज़ा देती हुई इस कविता का कथ्य क्या है?

सारी उमर लेखक ने की ज्योतिष की पढ़ाई,
पर बम्बई वाले ने फतह कर ली लड़ाई.
बंगाल के इस बोलपुर में कटी उमर,
खजाना मगर तिलिस्म का पहुँचा है अमृतसर.
दिन तीन ही में काले हो जाएँ सफेद केश,
ऐसा गया का एक करामाती है दरवेश.
मस्तानी दवा जो है इटावे से चल पड़ी,
क्या वह भी न मिल सकती है लेखक को इस घड़ी.
चटकीले बहुत से पड़े विज्ञापनों के ठाट,
मैनेजरों ने हैं दिए पन्ने सभी ही पाट.
देख इश्तिहार चूर्ण का मोदक वरास्त्र का,
दिलखुश का, सेंट-सोप का और कोकशास्त्र का.
यह झीन-सीन गेंद का आश्चर्य मलहम का,
सब चूर-चूर हो गया अभिमान कलम का.
कविता में लय का प्रवाह अनवरूद्ध नहीं है, प्रसंग के अनुसार दीर्घ, ह्रस्व का विधान करना पड़ता है, कहीं देर तक ठहरना पड़ता है, कहीं जल्दी से दौड़ जाना पड़ता है. जैसे ‘मैनेजरों ने हैं दिए पन्ने सभी ही पाट’ में मैनेजरों के ‘ने’ पर ठहरना है और ‘देख इश्तिहार चूर्ण में ‘ख’ के साथ इश्तिहार के ‘इ’ को मिलाकर ‘रिव’ पढ़ने से प्रवाह बनेगा. शास्त्र को व्यवहार से जीवित रखना होगा। खै़र!
साहित्यिक पत्रिका या पुस्तक में ‘चटकीले बहुत से पड़े विज्ञापनों के ठाट’. ‘मैनेजरों ने हैं दिए पन्ने सभी ही पाट’. आजकल हम लोग जिस उपभोक्ता संस्कृति की बात करते हैं, टाइम्स ऑफ इण्डिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडिया टुडे, यहाँ तक कि हिन्दी के दैनिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स आदि में प्रथम पृष्ठ पर नेताओं के फोटुओं की जगह माडेल्स ने ले ली है, भारतीय संस्कृति का खजुराहो संस्करण छाया हुआ है, उसकी शुरुआत हो चुकी थी और ज्योतिषाचार्य पं.हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उस पर कविता भी लिख दी थी. विज्ञापनी संस्कृति के कारण साहित्य की दुर्दशा को चित्रित करने वाली खड़ी बोली हिन्दी की और शायद उर्दू की भी यह पहली कविता है.

ठाठ व्यक्तिपरक निबंध का है. वही मामूली-सी बात से शुरुआत करके, विविध प्रसंगों से बहलाते-फुसलाते बतरस, अनौपचारिक आत्मीय ढंग से किसी निर्णायक ऐतिहासिक मुद्दे पर पहुँचा देना. कविता में निबंध की विधा का उपयोग करना मामूली बात नहीं. इसे कविता से गद्य में कर दें तो यह परसाई के व्यंग्य-निबंध जैसा हो जाएगा. लेकिन वाचन-लय से उत्पन्न प्रभाव त्यागकर कहानी का प्रभाव ज्यादा ग्रहण कर लेगा. इस विज्ञापनी संस्कृति से घाटा साहित्यकार को है-‘सब चूर-चूर हो गया अभिमान कलम का’.
द्विवेदी जी ने संस्कृत और अपभ्रंश में भी कविता की है. कविता क्या की है, हाथ आजमाया है. पंत जी की या मंडन की कविताओं का ऐसा अनुवाद किया है कि वे अनुवाद नहीं लगतीं. पंत जी की प्रसिद्ध पंक्तियों-

छोड़ द्रुमों की यह छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन। का संस्कृत अनुवाद यों किया है-
त्यक्तवा द्रुमाणमिह मंजुलाम्याम् विहाय मायां प्रकृतेरुदाराम्
बालो सुजाले तव कुंतलानां कथं प्रबहनामि विलोचने में द्विवेदी जी दूसरों की पंक्तियों को संदर्भ में बिठलाकर ग्रहण कर लेते हैं और अपनी पंक्तियाँ दूसरों के हवाले कर देते हैं. उनकी रचनाओं में यह कौशल ऐसा रचा-बसा है कि कई बार इस बात का पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि पंक्तियाँ किसकी हैं। चारुचंद्र लेख में वर्णन है-रानी की दृष्टि युगलमूर्ति की ओर गई. हम दोनों ने साष्टांग प्रणाम किया. बाहर नारी माता की मधुर स्तुति सुनाई पड़ी-
गताऽहं कालिंदीं गृहसलिलया नेतुमनसा
घनद घोरैर्मेघै गगनमभितौ मेदुरमभूत्
मृशं धारासारैरपतमसहाया क्षितितले
ज्यत्वङ्के गृहणान्पटुनट कलः कोऽपि चपलः. जानकर ही समझेगा कि ये पंक्तियाँ ब्रजभाषा कवि मंडल के सवैये का अनुवाद हैं-

भालि हौं तो गई जमुना जल को सो कहा कहौ वीर विपति परी.
घहराय कै कारी घटा उनई इतनेई में गागर सीस धरी।.
रपट्यो पग घाट चढ़यो न गयो कवि मंडल हवै कै बिहाल गिरी.
चीर जीवहु नंद को बारो अरी! गहि बाँह गरीब ने ठाढ़ी करी.
पुनर्नवा में मंजुला ने देवरात को पत्र लिखा है. पत्र में अपभ्रंश दोहा है-

दुल्लह जण अणुराउ गरु लज्ज बरब्बसु प्राणु.
सहि मणु विसम सिणेह बसु मरणु सरणु णहु आणु।. यह दोहा द्विवेदी जी की ही रचना है. मैंने त्रिलोचन शास्त्री और नामवर जी से बारहा पूछा कि बाणभट्ट की आत्मकथा का वस्तु-संकेतक यह श्लोक कहाँ से उद्धत है. स्रोत का पता नहीं चलता.

जलौघमग्ना सचराचरा धरा
विषाण कोट या ऽखिल विश्व मूर्त्ति ना.
समुद्धृता येन बराह रूपिणा.
समे स्वयंभू भगवान् प्रसीदतु।.
अनुमानतः यही भी आचार्य द्विवेदी जी की रचना है. द्विवेदी जी मन में मौज उठने पर संस्कृत, हिन्दी, खड़ीबोली, अपभ्रंश, भोजपुरी-किसी में रचना करते थे. भाषा आयोग के सदस्य के रूप में गवाही लेने के बाद सी.वी.रमन पर श्लोक लिखा था-मुझे पूरा नहीं याद है-स्मृति से लिख रहा हूँ-
मनोहरां तां मांग्ल मनोभवां..
स एष सी.बी.रमणो महात्मा
हा हंत नीबी रमणो बभूव।
हिन्दी के प्रति रमण महोदय के मन में जो अवज्ञा थी उससे आहत होकर पंडित जी ने लिखा होगा.
द्विवेदी जी की बिखरी लुप्तप्राय छोटी-बड़ी रचनाओं की खोज की जानी चाहिए. उन्हें संकलन में शामिल किया जाना चाहिए. समाधिस्थ शिव का चित्रण करने वाली कालिदास की पंक्तियों का हिन्दी में पद्यानुवाद किया था. पहली पंक्ति है-

बैठे संयमी त्रिलोचन शिव द्विवेदी जी स्वप्नजीवी थे, यथार्थ-द्रष्टा भी. उनकी दो वैचारिक कविताएँ (आप चाहें तो विचार कविताएँ भी कह लीजिए) निबंध के रूप में (नवें खंड) छपी हैं. ‘रे कवि एक बार सम्हल’ और ‘बोलो, काव्य के मर्मज्ञ’. इसमें उन्होंने अपनी दुविधा का बयान किया है, कल्पना में भारत का स्वर्णिम अतीत है और आँखों के सामने वर्तमान की दुर्दशा.
‘मन में रमे हैं पूर्व युग के स्वर्ण मणिमय सौध’ किन्तु ‘आँखें देखती हैं ठठरियों के ठाठ, चिथड़ों के घृणास्पद ढूह’
अपने इस व्यक्तित्व के बारे में वे लिखते हैं-
मैं हूँ स्वयं जिन प्रतिवाद...मैं हूँ उभय तो विभ्रष्ट, अधर कलंक रंक त्रिशंकु.
यथार्थ देखकर कवि कहता है-
सत्यानाथ हो उस विधि-व्यवस्था का
कि जिसने चूसना ही है सिखाया मनुज को नरात्य का,
विध्वंस हो उस नीति का जिसने कि झूठी मानसिक उन्मादना को
नाम दे देकर महामहिमा समन्वित बाँध रखा है
मनुज को दीनता के पाश में. कविता में आगे सामान्य जन को अपार संभावनाओं वाला बताया गया है-तू धूल में लिपटे हुए जनों को क्या समझता है. ये हिमालय की जड़ खोद सकते हैं, जलधि को पाट सकते हैं-

कि अरे इन खुफ्त गाने खाक को तू क्या समझता है
कि ये जड़ खोद सकते हैं हिमालय की, पाट सकते जलधि को वंचित, अभावग्रस्त जन की शक्ति पर इतना भरोसा. कविता पर कम भरोसा. इतने बड़े-बड़े सरस्वती-पुत्रों की कविता क्या कर पाई! वाल्मीकि, व्यास, कालिदास की कविता से मनुष्य समाज में हिंसा, घृणा, पाशविकता कम हुई? नहीं फिर सारा काव्य व्यर्थ है-
फिर क्यों काव्य का अभिमान?
फिर क्यों व्यर्थ अभिसम्पात?
फिर क्यों यह अरण्य –निनाद?
फिर क्यों कलम कण्डूयन
वृथा वाग्जाल! व्यर्थ प्रयास! यह निराशा उस चिंतक कवि की है, जो बार-बार मनुष्य की जय-यात्रा की बात करता है. मनुष्य की जय-यात्रा और कवि की व्यर्थता दोनों साथ-साथ हैं. इसीलिए वे भावुक और एकांगी नहीं हैं. द्विवेदी जी इकहरे चिंतक कवि नहीं. वे मानव-इतिहास और व्यक्तित्व की सफलता-विफलता को साथ-साथ देखते हैं. विरोधी भाव-दशा में वे विरोधी बातें करते जान पड़ते हैं, किन्तु यह वह मानवीय संवेदना है जो इतिहास की द्वंद्वात्मकता पर नज़र रखती है और युग-बोध की धार पर खराद कर नए मनुष्य को गढ़ने का प्रयास करती है. द्विवेदी जी की काव्य-दृष्टि मनुष्य की उच्चता और नीचता दोनों को देखती है. इसीलिए कविताओं में संवेदना और समझ का संयोग है.
------------------विश्वनाथ त्रिपाठी कृत सभार

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